पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२०३

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क्रि० वि० पुरी तरह से । अनुचित या अनुपयुक्त रूप से। बेतहाशा-क्रि० वि० [फा. म. ताशा] (१) बहुत बेतरह। अधिक तेज़ी से। बहुत शीघ्रता से । जैसे,—चोदा बेतहाशा बेढ़ा-संज्ञा पुं० [हिं० बेदना-घेरना] (1) हाथ में पहनने का भागा । (२) बहुत घबराकर । (३) बिना सोचे समझे । एक प्रकार का कड़ा (गहना)। उ०-तोरा कठी माल जैसे, सुम तो हर एक काम इसी तरह बेतहाशा कर रतन चौकी बहु साकर । बेढ़ा पहुंची कटक सुमरनी छाप . बैठते हो। सुभाकर ।-सूदन । (२) घर के आस पास वह छोटा सा बेताब-वि० [फा०] (१) जिसमें ताब या ताकत न हो। घेरा हुआ स्थान जिसमें तरकारियाँ आदि बोई जाती हों। दुर्बल । कमजोर । (२) जो बेचैन हो। विकल । प्याकुल । बेढाना-कि० स० [हिं० बेदना का प्रे०] (1) घेरने का यंताबी-संज्ञा स्त्री० [फा०] (१) कमज़ोरी । दुर्बलता । (२) काम दूसरे से कराना । घिरवाना । (२) ओकाना । बेचैनी । घबराहट । व्याकुलता। यदुआ-संशा पुं० [देश॰] गोल मेथी। खेतार-वि० [हि. बे+तार ] बिना तार का । जिसमें तार न हो। बेणीफूल-संज्ञा पुं० [सं०वेणी+हिं० फूल ] फूल के आकार का यौ०-बेतार का सार विद्युत् की सहायता से भेजा हुआ वह सिर पर पहनने का एक गहना । सीसफूल । समाचार जो साधारण तार की सहायता के बिना ही भेजा गया बेत-संज्ञा पुं० दे."बंत"। हो । (आजकल तार द्वारा समाचार भेजन में यह उन्नति हुई है बेतकल्लुफ़-वि० [ का +अ० तकल्लुफ़ ] (1) जिसे तकल्लुफ कि समाचार भेजने के स्थान से समाचार पहुँचने के रथान तक की कोई परवा न हो। जिसे ऊपरी शिष्टाचार का विशेष तार के खंभों की कोई भावश्यकता नहीं होती । केवल दोनों ध्यान न हो, बल्कि जो अपने मन का म्यवहार करे। स्थानों पर दो वियत्यंत्र होते हैं जिनकी सहायता से एक स्थान सीधा सादा व्यवहार करनेवाला । (२) जो अपने हृदय का समाचार दूसरे स्थान तक बिना तार को सहायता के ही की बात साफ़ साफ़ कह दे । अंतरंगता का भाव पहुँच जाता है। इसी प्रकार आए हुए समाचार को बिना तार रखनेवाला। का तार या बेतार का तार कहते हैं । ) क्रि० वि० (१) बिना किसी प्रकार के तकल्लुफ़ के। बेताल-संज्ञा पुं० [सं० वेताल ] बैताल । दे. “वेताल"। (२) बेधड़क । निस्संकोच । संज्ञा पुं० [सं० वैतालिक ] भाट । बंदी । उ०—सभा मध्य येतकल्लुफी-संज्ञा स्त्री० [फा०] बेतकल्लुफ़ होने का भाव । बैताल, ताहि समय सो पढ़ि उठ्यो । केशव बुद्धि विशाल, सरलता । सादगी। सुदर सूरो भूप सो। केशव । बेतकसीर-वि० [फा० बे+अ० तकसीर ] जिसने कोई अपराध बेतुका-वि० [फा० बे+हिं० तुका ] (1) जिसमें सामंजस्य न हो। न किया हो। निरपराध । निदोष । बेगुनाह । बेमेल । बेतना-क्रि० अ० [सं० वेतन ] प्रतीत होना । जान पड़ना। महा०-बेतुकी हॉकमावंगी बात कहना। ऐसी बात उ.-आपनी सुदरता को गुमान गहै सुखदान सु औरहि . कहना जिसका कोई सिर-पैर न हो। बेति है। -रघुनाथ। (२) जो अवसर कुअवसर का ध्यान न रखता हो। बेतमीज़-वि० [फा० बे+अ० तमीज़ ] जिसे शऊर या तमीज न ! देगा। बेढव । जैसे-वह बड़ा बेतुका है, उसको मुंह नहीं हो। जिसको भद्रता का आचरण करना न आता हो। लगाना चाहिए। बेहूदा । उजडू । फूहर। बेतुका छंद-संज्ञा पुं० [हिं० चतुका+सं० छंद ] अमिताक्षर छंद । बेतरह-नि० वि० [फा० +अ तरह(1) बुरी तरह से। ऐसा छंद जिसके सुकांत आपस में न मिलते हों। अनुचित रूप से । जैसे, तुम तो बेतरह बिगड़ गए। (२) बेतौर-कि० वि० [फा० अ० तौर ] बुरी तरह से । बेढंगेपन असाधारण रूप से। विलक्षण ढंग से। जैसे,—यह पेड़ से। बेतरह। बेतरह बद रहा है। वि० जिसका तौर तरीका ठीक न हो । बेढंगा। वि० बहुत अधिक । बहुत ज़्यादा । जैसे, वह बेतरह बेद-संज्ञा पुं० दे० "वेत"। मोटा है। संशा पुं०३० "वेद"। येतरीका-वि० [फा० ने+० तरीका ] जो तरीके या नियम के बेदक-संज्ञा पुं० [सं० बंद+क (प्रत्य०) ] हिंदु। (हिं.) विरुद्ध हो। बेकायदा । अनुचित । बेदखल-वि० [फा०] जिसका दखल, कम्ज़ा या अधिकार न क्रि. वि. बिना ठीक तरीके के। अनुचित रूप से। हो । अधिकारच्युत । जैसे, डिगरी होते ही वह तुम्हें बेद- बेतवा-संवा स्त्री० [सं० वेत्रवती ] बुंदेलखंड की एक नदी जो खल कर देगा । ( इसका व्यवहार केवल स्थावर संपत्ति भूपाल के ताल से निकलकर जमुना में मिलती है। के लिये ही होता है।)