पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२०५

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बेनट २४९८ बेकायदा न हो। जिसकी कोई समता न कर सके। अद्वितीय । बनौटी-वि० [हिं० बिनौला ) कपास के फूल की तरह हलके अनुपम । पीले रंग का । कपासी । बेनट--संझा स्त्री० अं० बायोनेट ] लोहे की वह छोटी कि जो संज्ञा पुं० एक प्रकार का रंग जो कगस के फूल के रंग का सैनिकों की बंदूक के अगले सिरे पर लगी रहती है।। सा हलका पीला होता है। कपासी । संगीन । बेनौरा-संज्ञा पुं० दे० "बिनौला"। बेनवर -संज्ञा पुं० दे० "बिनौला"। बेनौरी-संशा स्त्री० [हि० बिनौला ] आकाश से वर्षा के साथ बेनसेद-संज्ञा पुं० [अ० विंड सेल ] जहाज़ में टाट आदि का बना गिरनेवाले छोटे छोटे पत्थर जो प्राय: बिनौले के आकार के हुआ नल के आकार का वह यदा पैला जिसकी सहायता होते हैं। भोला । पत्थर । से जहाज़ के नीचे के भागों में ऊपर की ताजी हवा पहुँचाई बेपरद-वि० [ का बे+परदा ] (1) जिसके उपर कोई परदा न जाती है। (लश०) हो। जिसके आगे कोई ओट न हो । अनावृत । (२) नंगा। बेना-संशा पुं० [सं० वेण ] (1) बांस का बना हुआ हाथ से नग्न। झलने का छोटा पंखा । (२) खस । उशीर । उ.-कीन्हेसि बेपरवा, बेपरवाह-वि० [फा० बेपरवाह ] (1) जिसे कोई परवा अगर कस्तुरी बेना की-हेसि भीमसेनि अरु चेना।-- न हो। बेफ़िक्र। (२) जो किसी के हानि-लाभ का विचार जायसी। (३) बाँस। न करे और केवल अपने इच्छानुसार काम करे । मन-मौजी। संज्ञा पुं० [सं० वेणी ] एक गहना जो माथे पर बंदी के बीच (३) उदार। में पहना जाता है। बेपरवाही-संशा स्त्री० [फा०] (1) बेपरवाह होने का भाव । बनागा-क्रि० वि० [फा० ने+अ. नागा | बिना नागा गले। बेफ़िकरी । (२) अपने मन के अनुसार काम करना। निरंतर । लगातार । नित्य । येपर्द-वि० दे० 'परद"। निमून*-वि० [फा० बे+नमूना ] अद्वितीय । अनुपम । उ० बेपाह-वि० [हिं० सं० उपाय ] जिसे घबराहट के कारण बेनिमून सबके पारा । आखिर काकी करी दिवारा। कोई उपाय न सूझे । भौधक । हक्का बक्का । उ०---कोहर कबीर। स एदीनि को लाली देखि सुभाइ। पाय महायर देन को बेनी-संज्ञा स्त्री० [सं० वेणी] (1) स्त्रियों की चोटी । उ.---मुंदी आप भई पाह।-बिहारी। न रावत प्राप्ति अली यहD दी गोगाल के हाथ की बेनी|- बेपार-संज्ञा पुं० [ देश. ] एक प्रकार का बहुत ऊँचा वृक्ष जो मतिराम । (२) गंगा, सरस्वती और यमुना का संगम । हिमालय की तराई में ६००० से ११००० फुट की ऊँचाई त्रिवेणी। उ०-गनु प्रयाग अरयल विच मिली। बेनी भई! तक अधिकता से पाया जाता है । इसकी लकड़ी यदि सीब सो रोमावली।-जायपी। (३) किवाड़ी के किमी पल्ले में से बची रहे तो बहुत दिनों तक ज्यों की त्यों रहती है और लगी हुई एक छोटी लकबी जो हमरे पाले को खुलने से प्रायः इमारत में काम आती है। इस लकड़ी का कोयला रोकता है। (जिस पल्ले में बेनी लगी होती है, जब तक वह बहुत तेज़ होता है और लोहा गलाने के लिये बहुत अच्छा न मुले, तब तक दूसरा पल्ला नहीं खुल सकता । इसलिये समझा जाता है। इसकी छाल से जंगलों में झोपनियां भी किसी एक पल्ले में यह बेनी लगाकर उसी में सिटकिनी छाई जाती हैं। फेल। या रिकवी आदि लगा देते हैं और दूसरा पल्ला आगे करके संज्ञा पुं० दे० "व्यापार"। बेनीवाले पल्ले की सिटकिनी या सिकड़ी लगा देते है जिससे । बेपारी-संशा पुं० दे० "ग्यापारी"। दोनों पल्ले पंद हो जाते है।) 30---चोरिन रानी दियो । बेपीर-वि० [फा० बे+हिं० पीर पीका] (१) जिसके हृदय में निमेनी । चहि बोल्यो कपाट की बेनी।- रघुराज । (४) किसी के दु:ख के लिये सहानुभूति न हो। दूसरों के कष्ट एक प्रकार का धान जो भादों के अंत या कुँवार के आरंभ को कुछ न समझनेवाला । (२) निर्दय । बेरहम । में तैयार हो जाता है। बेदी-वि० [हिं० वे+दा ] जिसमें पैदा न हो। जो पैदा न बेनीपानी-संत्रा पुं० दे० "बंदी"1 (गहना) होने के कारण इधर उधर लुढ़कता हो। बेनु-संज्ञा पुं० [सं० वेणु] (1) दे० "वेणु"। (२) बंसी । मुस्ली। मुहा०-वेदी का लोटा-वह सीधा सादा आदमी जो दूसरों (३) बांस। के कहने पर ही अपना मत या कार्य आदि बदल देता हो। बेनुली-संशा स्त्री० [देश॰] जाँते या चक्री में यह छोटी सी किसी के परा से कहने पर अपना विचार बदकनेवाला आदमी । लकड़ी जो किले के ऊपर रखी जाती है और जिसके दोनों बेकायदा-वि० [फा०] जिससे कोई फायदा न हो। जिससे सिरों पर जोती रहती है। कोई लाभ न हो सके। व्यर्थ का। र. आरमा