पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बेक्रिक २४९९ क्रि० वि० दिना किसी काम के। बिना कारण । व्यर्थ बेमौका-वि० [फा०] जो अपने ठीक मौके पर न हो। जो अपने नाहक उपयुक्त अवसर पर न हो। बेफिक्र-वि० [फा०] जिसे कोई फ़िक न हो। निश्चित।बेपरवा। संशा पुं० मौके का न होना । अवसर का अभाव । बेफ़िक्री-संज्ञा स्त्री० [फा०] बेफ़िक्र होने का भाव । निश्चितता।बेयरा-संवा पुं० दे."बेरा"। बेबस-वि० [सं० विवश ] (1) जिसका कुछ वश न चले। बेर-संज्ञा पुं० [सं० बदरी 1 (9) प्राय: सारे भारत में होनेवाला लाचार । (२) जिसका अपने ऊपर कोई अधिकार न हो। मझोले आकार का एक प्रसिद्ध केटीला वृक्ष जिसके छोटे बड़े पराधीन । परवश । कई भेद होते है। यह वृक्ष जब जंगली दशा में होता है, बेबसी-सशा स्त्री० [हिं० देवरा+ई (प्रत्य०)] (1) बेबस होने का तब झरबेरी कहलाता है; और जब कलम लगाकर तैयार भाव । लाचारी । मजबूरी। विवशता । (२) पराधीनता । किया जाता है, तब उसे पेनी (पैबंदी) कहते हैं। इसकी परवशता। पत्तियाँ चारे के काम में और छाल धमदा पिझाने के काम बेबाक-वि० [फा०] जो एका दिया गया हो। जो अदा कर में आती है। बंगाल में इस वृक्ष की पत्तियों पर रेशम के दिया गया हो। दुकता किया हुआ। पुकाया हुआ। की भी पलते हैं। इसकी लकड़ी कड़ी और कुछ लाली बंबनियाद-वि० [फा०] जिसकी कोई जबन हो। निर्मूल । बेजब। लिए हुए होती है और प्रायः खेती के औजार बनाने के बेण्याहा-वि० [फा. बे+हिं० म्यादा ] [ स्त्री० च्याही ] जिसका और इमारत के काम में आती है। इसमें एक प्रकार के विवाह न हुआ हो । अविवाहित । कुँआरा । लंबोतरे फल लगते हैं जिनके अंदर बहुत कड़ी गुठली होती भाव-क्रि० वि० [फा० वे+हिं. भाव ] जिसका कोई हिसाब है। यह फल पकने पर पीले रंग का हो जाता है और पीठा ___ या गिनती न हो। बेहद । बेहिसाब । होने के कारण खूब खाया जाता है। कलम लगाकर इसके मुहा०-बेभाव की पड़ना=(१) बहुत अधिक मार पकना । (२) फलों का आकार और स्वाद बहुत कुछ बढ़ाया जाता है। बहुत अधिक फटकार पड़ना । पर्या०-बदर । कर्कंधू । कोल । मौर। कंटकी। वक्रटक । बेम-संशा स्त्री० [ देश० ] जुलाहों की कधी । बय । बैसर । वि० । (२) इस वृक्ष का फल। दे. "कंधी (२)"। संज्ञा स्त्री० [हिं० बार ] (1) बार। दफ़ा। वि. और मुहा० अमन-क्रि० वि० [ हिं० मन ] बिना मन लगाए । बिना दे. "बार"। उ०जो कोई जाया इक बेर माँगा। जनम दत्तचित हुए। | न हो फिर भूग्वा नाँगा ।-जायमी। (२) विलंब । देर । वि० जिसका मन न लगता हो। बेरजरी-संज्ञा स्त्री० [हिं० बेर+झडी ? ] झड़बेरी जंगली बेर। उ.- बेमरम्मत-वि० [फा०] जिसकी मरम्मत होने को हो, पर न बेरजरी सुदिलैया बूटी। बरूपहर बादची लूटी।--सूदन। न हुई हो। बिगदा हुआ। बिना सुधरा । टूटा फूटा। बेरजा-संशा पु० दे० "बिरोजा"। बेमरम्मती-संज्ञा स्त्री० [फा०] बेमरम्मत होने का भाव । बेरवा-संशा पुं० [देश॰] कलाई में पहनने का सोने वा चाँदी बेमाई -संज्ञा स्त्री० दे० "बिवाई"। का कड़ा। बेमारी-संशा स्त्री० दे. “बीमारी"। सं.1 पुं० दे. "ब्योरा"। मालम-क्रि० वि० [फा०] ऐसे ढंग से जिसमें किसी को मालूम बेरस-वि० [फा०+हिं० रस ] (१) जिम्में रम का अभाव हो। न हो। बिना किसी को पता लगे । जैसे, वह सब माल रस-रहित । (२) जिसमें अच्छा स्वाद न हो। पुरे स्वाद- बेमालूम उदा ले गए। वाला । (३) जिसमें आनंद न हो। बेमजा । वि. जो मालूम न पड़ता हो । जो देखने में न आता हो' संज्ञा पुं० रस का अभाव । बिरसता । (क०) या जिसका पता न लगता हो। जैसे,रकी मिलाई बेरहई -संज्ञा पुं० दे० 'बेई"। बिलकुल बेमालूम होनी चाहिए। बेरहमी -संशा स्त्री० [ बेर ?+हिं ० हड्डी ] घुटने के नीचे की हड़ी बेमिलावट-वि० [फा० ने+हिं० मिलावट ] जिसमें किसी प्रकार | में का उभार । की मिलावट न हो। बेमेल । शुद्ध । खालिस । साफ। बेरहम-वि० [फा० रा ] जिसके हृदय में दया न हो। निर्दय । बेमुखा-वि० दे. "विमुख"। निठुर । दयाशून्य । बेमुनासिब-वि० [फा०] जो मुनासिब न हो । अनुश्चित। बेरहमी-संज्ञा स्त्री० [फा० देरशी बेरहम होने का भाव। निर्दयता। बेमुरव्वत-वि० [ का० ] जिसमें मुरम्वत न हो। जिसमें शील दयाशून्यता । निठुरता। या संकोच का अभाव हो। तोता-चश्म । बेरा-संज्ञा पुं० [सं० वेला ] (1) समय । वक्त । बेला । (२) बेमुरव्वती-संज्ञा स्त्री० [फा०] बेमुरग्वत होने का भाव । तड़का । भोर । प्रात:काल ।