पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२११

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बेसिलसिल २५०४ बेहरी बेसिलसिले-क्रि० वि० [हिं० ०+फा सिलमिला ] बिना किसी : बेहना-संज्ञा पुं० [सं० वपन ] अनाज आदि का बीज जो खेत में क्रम आदि के। अम्यवस्थित रूप से। बोया जाता है। बीया। बेसी-कि० वि० [फ़! बेश ] अधिक । ज़्यादा । क्रि०प्र०-दालना।-पड़ना। बेसुध-वि० [हिं० बे+सुध होश ] (1) अचेत । बेहोश । (२) वि० [ १ ] पीला । ज़र्द । बेखबर । बदहवास । बेहना-संज्ञा पुं॰ [देश॰] (1) जुलाहों की एक जाति जो प्रायः बेसुधी-संज्ञा स्त्री० [हिं० बेसुध+ई (प्रत्य॰)] अचेतनता ।। रूई धुनने का काम करती है। (२) रूई धुननेवाला । बेखबरी । बेहोशी । (क.) धुनिया। बेसुर-वि [ हिं० दे+सुर-स्वर ] संगीत आदि की दृष्टि से जिसका घेहनौर -संज्ञा पुं० [हिं० बेहन+और (प्रत्य०)] वह स्थान जहाँ स्थर ठीक न हो। बेमेल स्वरवाला। उ०-चेत होहन धान वा जपहन आदि का बीज गला जाय । पनीर । एक सुर कैसे बनै बनाइ । जब मृदंग बेसुर भए मुँहै थपेरै बियामा खाइ।-रसनिधि। विशेष-धान आदि की फसल के लिये पहले एक स्थान पर बेसुरा-वि० [हिं० + सुर-स्वर ] (1) जो नियमित स्वर में | बीज बोए जाते हैं; और जब वहाँ अंकुर निकल आते हैं, न हो । जो अपने नियत स्वर से हटा हुआ हो।। तब उन्हें उखाड़कर दूसरे स्थान में रोपते हैं। पहले जिस (संगीत)। (२) जो अपने ठिकाने या मौके पर न हो।। स्थान पर बीज बोए जाते हैं, उसी को पूरब में बेहनौर बेमौका! बेस्वाद-वि० [हिं० बे+सं० स्वाद ] (१) जिसमें कोई अच्छा | बेहया-वि० [फा० ] जिसे हया या लज्मा आदि बिलकुल न हो। स्वाद न हो । स्वादरहित । (२) जिसका स्वाद ख़राब हो। निर्लज । बेशर्म। . बदज़ायका। बेहयाई संज्ञा स्त्री० [फा०] बेहया होने का भाव । बेशर्मी। बहंगम-वि० [सं० विहंगम ] (1) जो देखने में भहा हो। बेढंगा।। निर्लजता। जैसे, बेहंगम मूर्ति । (२) बेढब । विकट । जैसे,—वह महाल-बेहयाई का जामा वा बुरका पहनना या ओढ़ना- बेहंगम आदमी है, सबसे झगड़ पड़ता है। निर्लज्जता धारण करना। निर्लज्ज हो जाना। पूरा बेशर्म बन बेहंगमपन-संज्ञा पुं० [हिं० बहंगम+पन (प्रत्य॰)] (1) बेहंगम | जाना । लोकलाज आदि की कुछ भी परवा न करना । होने का भाव । भहापन । वेदंगापन । (२) विकटता। बेहर-वि० [ देश] (1) अचर । स्थावर । उ.-रवि के उदय भयंकरता। तारा भो छीना । घर बेहर दूनों में लीना --कवीर । बेहँसना*-वि० अ० [हिं० हेंसना ] उठाकर हंसना । ज़ोर से | (२) अलग । भिन्न । पृथक् । जुदा । उ---वारि समुंद हँसना । वि० दे० "हसना"। सब नाँधा आय समुद अर्ह खीर । मिले समुद वे सातों बह -संशा पुं० [सं० वेध ] छेद । छिद्र । सूराख । बेहर बहर नीर ।-जायसी । बेहड़-वि० दे० "श्रीहर"। संज्ञा पुं० वापी । बावली। संज्ञा पुं० दे० "यीहर"। उ.-बन बेहद गिरि कंदर बेहरना-क्रि० अ० [हिं० बेहर किसी चीज़ का फटना या खोहा । सब हमार प्रभु पग पग जोहा । -तुलसी। तबक जाना । दरार पड़ना। चिर जाना। बेहतर-वि० [फा० ] अपेक्षाकृत अच्छा। किसी के मुकाबले में : बेहरा-मंशा पुं० [देश॰ 1(१) एक प्रकार की घास जिसे चौपाए अच्छा । किसी से बढ़कर । जैसे,--उपचाप घर बैठने से । बहुत पसंद करते हैं। (बुंदेल.) (२) मुंज की बुनी हुई तो वहीं चले जाना बेहतर है। गोल वा चिपटी पिटारी जिसमें नाक में पहनने की नथ अन्य • प्रार्थना या आदेश के उत्तर में स्वीकृति-सूचक शब्द । रवी जाती है। अच्छा। (प्रायः इस अर्थ में इसका प्रयोग "बहुत" शब्द वि० अलग । पृथक् । जुदा । भि। उ०-ना वह मिल ना के साथ होता है। जैसे,—आप कल सुबह आइएगा। बेहरा इस रहा भरपूरि। दिसिटिवत कह नीअरे अंध उत्तर-बहुत बेहतर ।) मुरुख कहें दूरि ।—जायसी। बेहतरी-संज्ञा स्त्री० [फा०] बेहतर का भाव । अच्छापन । संडा पुं० दे० "यरा"। भलाई । जैसे,—आपकी बेहतरी इसी में है कि आप उनका | बेहरी-संज्ञा स्त्री० [१] (1) किसी विशेष कार्य के लिये बहुत रुपया चुका है। से लोगों से चरे के रूप में मांगकर एकत्र किया हुआ धन । बेहद-वि० [फा०] (1) जिसकी कोई सीमा नहो। असीम ।। (२) इस प्रकार चंदा उगाहने की क्रिया । (३) यह किस्त अपरिमित । अपार । (२) बहुत अधिक। जो असामी किमीवार को देता है। वाला।