पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२१६

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बैनतेय २५०९ बैरागी जसुमति मन अभिलाष करै। कब मेरो लाल पवन रेंगे, करना। उ०-सिर करि धाय के बुकी भारी अब सो मेरो नाँव कर धरनी ग क धरै । का है दंत दूध के देखों का भयो। कालि नहीं यहि मारग ऐहो, ऐसो मोसों और ठयो।- तुतो मुख बैन सरै।--सूर । (२) घर में मृत्यु होने पर सूर । बैर डालना-विरोध उत्पन्न करना । दुश्मनी पैदा कहने के लिये बैंधे हुए शोकसूचक वाक्य जिसे स्त्रियाँ कह करना । और पढ़ना-बाधक होना । तंग करना । शत्रु होकर कहकर रोती है। (पंजाब) कष्ट पहुंचाना । उ.-कुटुंब वैर मेरे परे घरनि बरे सिसु- बैनतेय-संज्ञा पुं० दे० "वैनतेय"। पाल ।—सूर । बैर बड़ानाअधिक दुर्भाव उत्पन्न करना । बैना-संज्ञा पुं० [सं० वायन ] वह मिठाई आदि जो विवाहादि | दुश्मनी बढ़ाना । मा काम करना जिससे अप्रसन्न या कुपित उत्सवों के उपलक्ष में इष्ट मित्रों के यहाँ भेजी जाती है। मनुष्य और भी अप्रसन्न और कुपित होता नाय । उ-

  • कि० स० [सं० वपन ] योना।

आवत जात रहत याही पम मामों बैर यहो।-सूर । संज्ञा पुं० दे० "वेदा"। बैर विसाहना या मोल लेना--जिम बात में अपना कोई बैपार-संज्ञा पुं० [सं० व्यापार ] व्यापार । व्यवसाय । काम धंधा। . संबंध न हो, उनमें योग देकर दूसरे को व्यर्थ अपना विरोधी उ.-अगम काटि गम कीन्हो हो रमैयाराम । सहज कियो या शत्र बनाना । विना मतलब किमास दुश्मनी पैदा करना । बैपार हो रमैया राम !-कबीर । उ.-वाह्यो भयो न कळू कबहूँ जमराजा मो वृथा बैर बैंपारी-संज्ञा पुं० [सं० व्यापारी ] व्यापार करनेवाला । रोज़गारी । बिमाह्यां । पद्माकर । वैर मानना-दुर्भाव रखना । बुरा व्यापारी । उ०—उठ हिलोर न जाय सँभारी । भागहिं मानना । दुश्मनी रखना । बैर लेना-बदला लेना । कसर कोइ निवह वैारी।-जायाया। भिकालना : उ0--(क) लेत केहरि को बयर जनु भेक हति वैयन-संज्ञा पुं० [सं० वायन-बुनना ] लकड़ी का एक औज़ार गोनाय ।-तु-लपी । (ख) लेही वैर पिता तेरे को, जैहै जिससे बाना बैठाया जाता है। यह खड़ग के आकार का कहाँ पराई?—सूर। होता है और गढ़रिये इसे कंबल की पट्टियों के बुनने के संशः पुं० [देश | हल में लगा हुआ चिलम के आकार काम में लाते हैं। का चोगा जिसमें भरा हुआ बीज हल चलने में बराबर बैयर*f-संज्ञा स्त्री० [सं० बधूवर-हि. बहुअर ] औरत । स्त्री। कँद में पड़ता जाता है। उ.---सरजा समत्थ वीर तेरे बैर बीजापुर बैरी बैयरनि +संगा पुं० [सं० वरी] बेर का फल और पेड़। कर चीन्ह न चुरीन की।-भूषण । बैरख-संशा पुं० [ तु० बैरक ] सेना का झंडा । वा पताका । धैया 1-संशा पुं० [सं० बाय ] बै। बैसर । (जुलाहे) उ.-पढ़े निशान । उ०--(क) बैरख थाँह वपाइए पै तुलसी पह पढ़ाये कछ नहीं बाम्हन भक्ति न जान । म्याह सराधे कारणे म्याध अजामिल मेरे।—तुलसी । (ब) धन धावन यग- बैया Vडा तान ।-कार । पाति पटो सिर वैरग्य तड़ित सोहाई । —तुलसी । (ग) बैरंग-वि० [अंक बयारंग ] वह चिट्ठी या पारसल जिसका महसूल बैरव ढाल गगन मा छाई । चाल कटक धरती न समाई ।- भेजनेवाले की ओर से न दिया गया हो, पानेवाले से वसूल ! जायपी। (घ) चलती चपला नहें फेरते फिरंग भट, इंद्र किया जाय। को न चाप रूप बैरख समाज को।-भूपण । बैर-संज्ञा पुं० [सं० वैर ] (1) किसी के साथ ऐसा संबंध जिससे | वैरा-संज्ञा पु. । दश ] चिलम के आकार का एक चांगा जो हल उसे हानि पहुँचाने की प्रवृत्ति हो और उपसे हानि पहुँचने में लगा रहता है और जिसमें योते समय बीज डाला का डर हो। अनिष्ट-संबंध । शत्रुता । विरोध । अदावत । जाता है। दुश्मनी । जैसे,—उन दोनों कुलों में पीढ़ियों का बैर चला संज्ञा पुं० [अं. बेयरर ] सेवक | चाकर । विदमतगार । आता था। संज्ञा पुं० [ देश० ] ईंट के टुकड़े, रोड़े आदि जो मेहराव (२) किसी के प्रति अहित कामना उत्पन्न करनेवाला भाव । बनाते समय उसमें नी हुई ईंटों को जमी रखने के लिये प्रीति का बिल्कुल उलटा । वैमनस्य । दुर्भाव । द्रोह । द्वेष। खाली स्थान में भर देते हैं। उ.-बैर प्रीति नहिं दुरत दुराए।--तुलसी। 'बैराखी-संज्ञा स्त्री० [हिं० बाहु+रावा ] एक गहना जिसे स्त्रियाँ क्रि०प्र०-रखना। भुजा पर पहनती हैं। इसमें लंबोतरे गोल बड़े बड़े दाने मुहा०—और काढ़ना या निकालना-दुर्भाव द्वारा प्रेरित कार्य .. होते हैं जो धागे में गूंथकर पहने जाते हैं। बहुँटा। कर पाना । बदला लेना । उ०—यहि विधि सब नर्व न पायो बैराग-संज्ञा पुं० दे० "वैराग्य" । बज काढ़त बैर दुरासी ।-सूर । खैर ठानना-शत्रुता का : बैरागी-संज्ञा पुं० [सं० विरागी] [स्त्री० वैरागिन ] वैष्णव मत के संबंध स्थिर करना । दुश्मनी मान लेना । दुर्भाव रखना आरंभ | साधुओं का एक भेद । ६२८