पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२१७

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बैहर बैराग्य-संशा पु० दे० "वैराग्य" । उ.-बैस चड़े घर ही रहु बैठि अटानि चढ़े बदनाम बैराना-कि० अ० [हिं० बाइ, वायु ] वायु के प्रकार से बिगबना। चढ़ गो। रसनिधि। उ.-जे अॅग्वियाँ बैरा रही सगै विरह की बाइ। पीतम संज्ञा पुं० [ किमी मूल पुरुष के नाम पर ] क्षत्रियों को एक गरज को तिन्हें अंजन देहु लगाइ।-सनिधि। प्रतिद्ध शाखा जो कनौज से लेकर अंतर्वेद तक बसी पाई बैरी-वि० [सं० ] [भी वैरिन । (9) बैर रग्बनेवाला । शत्रु। जाती है। यह शाग्वा पहले थानेश्वर के आप पाय असती दुश्मन । द्वेषी । उ०—(क) शिव भैरी मम दास कहावै । थी।पीछे विक्रम संवत् ६६३ के लगभग इस शाग्वा के सो नर सपनेह साहि न पावै ।-तुली । (ख) लघु । प्रसिद्ध सम्राट हर्षवर्द्धन ने पूरब के प्रदेशों को जीता और मिलनो बिछुरन धना ता विच यैरिन लाज । हग अनुरागी कनौज में अपनी राजधानी बनाई। भाव ते कहु कह कर इलाज ।-रयनिधि । (२) विरोधी। संज्ञा पुं० दे० "वैश्य"। बैल-संशा पु० । सं० बलद या बलीबई ] [ श्री. गाय ] (१) एक बैसना* --क्रि० स० [सं० वेशन | बैठना । उ०—(क) रंग और चौपाया जिसको मादा को गाय कहते हैं। यह चौपाया | नाहि पाई बसे । जन्म और सुई पावत कैसे :--जायसी। खदा मेहनती और बोझा उठानेवाला होता है । यह हल में (ख) देखा कपिन जाइ सो बैसा । आहुति देत रुधिर अरु जोता जाता है और गाड़ियों को खींचता है। दे० "गाय"। भैंसा । -तुलसी । (ग) कहिये तासो जो होइ विवेकी । यौ०-बैलगाड़ी। तुम तो अलि उनही के संगी अपनी गों के टेकी । ऐसी को पर्या०-उक्षा । भद्र । बलीबई । वृषभ । अनड्वान । गौ। ठाली बैखी है तो सों मूंद खवावं । झटी बात तुमी सी (२) मूर्ख मनुष्य । जब बुद्धि का आदमी । जैसे,—वह | बिन कन फटकत हाथ न आवै । —सूर। | बैसर-संशा ली [हिं० रय] जुलाहों का एक औज़ार जिससे बैलर-संज्ञा पुं० [अ० म्वायलर ] पीपे के आकार का लोहे का करचे में कपडा बुनने समय बाने को बैठाते हैं। कंधी। वा देग जो भाप से चलनेवाली कलों में होता है। इसमें बय । यह बाँस की पतली तीलियों को बाँस के दो फटों पानी भरकर म्वौलाते और भाप उठाते हैं जिसके ज़ोर से पर आड़ी बाँधने से बनती है। कल के पुरजे चलते हैं। बैसवारा-संशा पुं० [हिं० बैस+वारा (प्रत्य॰)] [वि. बैसवारी] बैलून-संज्ञा पुं० [अ० ] (1) गुब्बारा । (२)बड़ा गुबारा जिसके अवध का पश्चिमी प्रांत । यह प्रदेश बहुत दिनों तक थानेश्वर सहारे पहले लोग ऊपर हवा में उड़ा करते थे। के बैस अत्रियों के अधिकार में रहा । बैस क्षत्रियों की बैषानस-सभा पुं० दे. "वैखानस"। यस्ती होने के कारण यह प्रदेश बैसवारा कहा जाने लगा। बैसंदर*-संज्ञा पुं० [सं० वैश्वानर ] अग्नि । उ०—कपिरा सीत बैस वंश के प्रसिद्ध सम्राट हर्षवर्द्धन ने अपनी राजधानी लता भई उपजा ब्रह्मज्ञान । जेहि बैसंदर जग जलै मो मेरे कन्नौज में रखी थी, यह इतिहास-प्रसिद्ध है। उदक समान ।—कबीर । | बैसाख-संज्ञा पुं० दे० "वैशाख"। बैस-संज्ञा स्त्री० [सं० वयम् ] (1) आयु । उम्र । उ०—(क) बैसाखी-संज्ञा स्त्री० [सं० विशाख-जिसमें शाखाएँ निकली हो। बुढ़िया हैं सि कह नितहि यारि । मोहिं ऐसि तरुणि कहु वैशाख-मथानी ] वह लाठी जिसके सिरे को कंधे के नीचे कौन नारि । ये दाँत गये मोर पान खात । औ केस गयल बगल में रखकर लँगड़े लोग टेकते हुए चलते हैं। इसके सिरे मोर गंग नहात । औ नयन गयल मोर कजल देत । अरु पर जो अर्द्धचंद्राकार आबी लकड़ी (अड्डे के आकार की) बैल गयल पर पुरुष लेत । औ जान पुरुषवा मोर अहार । लगी होती है, वही बग़ल में रहती है। लँगड़े के टेकने की मैं अनजाने को कर सिंगार । कह कबीर बुढ़िया अनँद . लाठी । उ०—(क) तिलक दुआइस मस्तक दीन्हे । हाथ गाय । औ पूत भतारहि बैठी खाय ।-कीर । (ख) कनक बैसाखी लीन्हे ।-जायसी। (ख) बैसाखी धरि कंध बूझति है रुक्मिनि पिय ! इनमें को सृषभानु किसोरी? शबचातुरी दिखावन । किमि जीतें रनखेत बड़ी विधि सों नेक हमें दिखरावो अपनी बालापन की जोरी । परम चतुर समझावन।-श्रीधर पाठक । जिन कीने मोहन सुबस बैस ही थोरी । बारे ते जिहि बैसारना*-क्रि० स० [हि. नैसना ] बैठाना । स्थित करना । यह पढ़ायो खुधियल कल बिधि चोरी ।-सूर । (ग) नित उ.-तेहि पर खूट दीप दुइ पारे । दुइ बुध दुहुँ खूट एकत ही रहत बैस बरन मन एक । चहियत जुगल | बैसारे।—जायसी। किशोर लखि लोचन जुगल अनेक ।-बिहारी । (२) बैसिक* -संशा पुं० [सं० वैशिक ] वेश्या से प्रीति करनेवाला यौवन । जवानी। नायक । वारांगणाविलासी पुरुष । मुहा०—स बढ़ना-युवावस्था प्राप्त होना। जवानी आना। बैहर*-वि० [सं० वैर भयानक ] भयानका क्रोधालु। उ.-