पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२२४

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बोना २५१७ ब्यापना बौना-संशा पुं० [सं० वामन ] [ स्त्री. बानी ] बहुत छोटे शील का जाना । व्यतीत हो जाना । बीत जाना । उ.--(क) जब मनुष्य । बहुत छोटा आदमी जो देखने में लड़के के विधम दर पाँच म्यतीते।-रघुराज । (ख) एक समय समान जान परे, पर हो पूरी अवस्था का । अत्यंत ठिंगना दिन मात ध्यतीते । सबै संत भोजन ते रीते।-रघुराज। या नाटा मनुष्य। (ग) साधु प्रीतिवस में नहि गयऊ । पहरा काल व्यतीतत बौर-संज्ञा पुं० [सं० मुकुल, प्रा. मुउड़ आम की मंजरी । मौर। भयऊ1-रघुराज। बौर-संज्ञा स्त्री० [हिं० बोरा ] पागलपन ! सनक । न्यथा-संज्ञा स्त्री० दे. "व्यथा"। बोरना-कि० अ० [हिं० दौर+ना (प्रत्य॰)] आम के पैर में मंजरी व्यथित-वि० दे० 'व्यथित"। निकलना । आम का फूलना । मौरना । उ०—(क) सहाही व्यलीक-वि० दे० "ग्यलीक" । बौरी मंजुर सहकारन की, चहचही हिल पहूँ कित | व्यवसाय-संज्ञा पुं० दे० "व्यवसाय"। अलीन की ।-सखानि । (ख) दूजे करि बारी खरी यौरी व्यवस्था-संज्ञा स्त्री० दे. "स्यवस्था"। और आम ।-बिहारी । (ग) और रसालन की चढ़ि धारन | व्यवहरा-संज्ञा पुं॰ [सं० व्यवहार ] उधार । कर्ज। कूफत क्वलिया मौन गहै ना। ठाकुर । कि०प्र०-देना। बौरहा-वि० [हिं० बौरा+हा (प्रत्य॰)] पागल । विक्षिप्त । । व्यवहरिया-संज्ञा पुं० [हिं० व्यवहार ] व्यबहार या लेन देन बौरा-वि० [सं० वातुल, प्रा. बाउड़, पुं० हिं० बाउर] [स्त्री० बौरी) | करनेवाला । रुपए का लेन देन करनेवाला । महाजन । (१) बावला । पागल । विक्षिप्त । सनकी । सिड़ी। जिस्का उ.-सत्र आनिय व्यवहरिया बोली । सुरत देई में थैली मस्तिष्क ठीक न हो। (२) भोला । अज्ञान । नादान ।। खोली।-सुलपी। मूर्ख । उ.-(क) हौं ही बौरी बिरह बस के बीरो मन व्यवहार-संज्ञा पुं० [सं० न्यवहार ] (१) दे० "न्यवहार"। (२) गाउँ।-बिहारी । (ख) हौं बौरी द्वंदन गई रही किनारे रुपए का लेन देन । (३) रुपए के लेन देन का संबंध । बैठ ।- कबीर । (३) गूंगा। (४) सुख दुःख में परस्पर सम्मिलित होने का संबंध । इष्ट बौराई*+-संज्ञा स्त्री० [हिं० बौरा+ई ] पागलपन। उ--सुनहु स्त्रि का संबंध । जैसे,—हमारा उनका व्यवहार नहीं है। नाथ मन जरत निषिध ज्वर करत फिरत बौराई। तुलसी। व्यवहारी-संशा पुं० [सं० व्यवहारिन् ] (1) कार्यकर्ता। मामला बौराना-क्रि० अ० [हिं० बौरा+ना (प्रत्य॰)] (१) पागल हो करनेवाला । (२) लेन देन करनेवाला । व्यापारी (३) जाना । सनक जाना । विक्षिप्त हो जाना । उ०-वा खाये जिनके साथ प्रेम का व्यवहार हो । हितू या इष्ट मित्र । बौरात है या पाये बौराद। कबीर । (२) उन्मत्त हो (४) जिसके साथ लेन देन हो। जाना । विवेक या शुद्धि से रहित हो जाना । उ०-भरतहि ब्यसन-संज्ञा पुं० दे. "व्यसन" | उ.-आग बसन व्यसन यह दोष देइ को जाये। जग बौराह राजपद पाये।-तुलसी। तिनहीं । रघुपति चरित होहितहँ सुनहीं। तुलमी। क्रि० स० बेवाफ बनाना । किसी को ऐसा कर देना कि वह · व्यसनी-वि० दे० "व्यसनी"। भला बुरा न विचार सके । मति फेरना । उ०--(क) मथत : ब्याज-संज्ञा पुं० [सं० व्याज ] (1) दे० "प्याज"। (२) वृद्धि । सिंधु रुवहि बौरायो । सुरन प्रेरि विष-पान करायो। सूद । उ.--कलि का स्वामी लोभिया मनपा रहे बँधाय । तुलसी । (ख) भल भूलिहु ठग के दौराये।-तुलसी। ' देवे पैसा म्याज को लेग्वा करत दिन जाय । -कवीर । (ख) चौराह*1-वि० [हिं० बौरा ] (1) बावला । पागल । सनकी। पो जनु हम रेहिमा कादा। दिन चलि गयेउ व्याज बहु उ०-वर चौराह बरद असवारा । तुलसी । वादा।-तुलदी। बौरी-संज्ञा स्त्री० [हिं० बौरा ] बावली स्त्री । दे. "बौरा"। क्रि० प्र०-जोडला-फैलाना ।—लगाना । बौलड़ा-संज्ञा पुं० [हि. यहु-+लड़ ] सि.कवी के आकार का सिर व्याध-संज्ञा पुं० दे० "ख्याध"। पर पहनने का एक गहना । व्याधा-संवा स्त्री० दे. "व्याधि"। बौहर-संशा स्त्री० [सं० वधूवर, हिं. बहुवर ] वधू। दुलहिन । | व्याधि--संज्ञा स्त्री० दे० "व्याधि" । बी । पक्षी। स्याना-क्रि० स० [सं० वीज=हिं . बिया+ना (प्रत्य॰)] जनना । व्यंग-संज्ञा पुं०३० "वम्य"। उत्पन्न करना। पैदा करना । गर्भ से निकालना । जैसे, व्यंजन-संज्ञा पुं० दे. "व्यंजन"। गाय का बछवा म्याना। व्यक्ति-संज्ञा स्त्री पुं० दे. "म्यक्ति"। क्रि० अ० बच्चा देना । जनना। न्यजन-संज्ञा पुं० ० "न्यजन"। | ब्यापना*-कि० अ० [सं० व्यापन] (1) किसी वस्तु वा स्थान में न्यतीवना-क्रि० स० [सं० व्यतीत+हिं. प्रत्य० ना] गुज़र | इस प्रकार फैलना कि उसका कोई अंशबानी न रह जाय। ६३०