पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२२५

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व्यापार २५१८ ब्योंत ओत-प्रोत होना । किसी स्थान में भर जाना । कोई जगह ब्याहना-क्रि० स० [सं० विवाह+ना (प्रत्य॰)] [वि. न्याहता ] अंक लेना । (२) चारों ओर जाना । फैलना । उ०—सुनि (1) देश, काल और जाति की रीति के अनुसार पुरुष का नारद के बचन तब सब कर मिटा विषाद । उन महँ म्यापेउ किसी स्त्री को अपनी पत्री या स्त्री का किसी पुरुष को सकल पुर घर घर यह संवाद।-तुलसी । (३) घेरना । अपना पति बनाना । उ॰—(क) ताल झॉम भल बाजप्त प्रसन। । उ--जरा अब हि तोहि पापै आई । भयेउ वृद्ध । आवे कहरा सब कोइ नाचै हो । जेहि ग दुलहा म्याहन सरप को शिर नाई।-सूर । (५) प्रभाव करना । असर आयो तेहि रंग दुलहिन राचै हो।-कबीर । (ख) क्षेत्र करना । उ०—(क) चिंता साँपिन को नहि खाया । को। मास पूनों को शुभ दिन शुभ नछत्र शुभ वार । ब्याहि लाई जग जाहि न व्यापी माया ।--तुलसी। (ख) गुरू मिला तर हरि देवि रुक्मिणी बादयो सुख जो अपार ।-सूर । जानिये मिटे मोह तन ताप । हरप शोक व्यायै नहीं तष संयां० क्रि०-लेना। हरि आप आप । —कर । (२) किसी का किसी के साथ विवाह-संबंध कर देना। संयोकि०-जाना। जैसे,---उरु.ने उसको अपनी लबका ब्याह दी। व्यापार-संज्ञा पु० दे० "व्यापार" । संयो० क्रि०-डालना ।-देना। म्यागे-संशा स्त्री० [सं० विहार ? ] (१) रात का भोजन । स्याल । ज्यूगा-संशा पुं० [ देश० ] लकड़ी का एक औजार जिससे उ०-एक दिन हरि ध्यारी करवाई। पूजक बीरी दियो न चमार चमड़े को रगड़ा देकर सुलझाते हैं। यह राँपी के जाई।-धुराज। आकार का होता है, पर इयका अगला भाग अधिक पैदा क्रि०प्र०-करना। होता है। (२) वह भोजन को रात के लिये हो । जैसे,-मेरे लिये व्योंचना- भ० [सं० विकुमन, प्रा. विजन (9) हाथ, पैर, व्यारी यहीं लाओ। उँगली, गरदन आदि धद में अतिरिक्त किसी अंग के एक- ग्याल-संशा पु० दे० "व्याल"। बारगं. एके के साथ मुह जाने या टेढ़े हो जाने में नयों का ब्याली-संश। ना. [ स० व्यालं। ] सर्पिणी । सॉपिन । नागिन । स्थान मे हट जाना, जिससे पीड़ा और सूजन होती है। उ.--हग पुतरा इन सब दिन पाली । निरखत रहिन यथा मुरकना । जैम, पैर ब्यांचना । (२) किसी अंग का एक- मणि पाली । -रघु. दा०। बारगं. इधर उधर मुड़ जाना जिससे पीड़ा हो । वि० [सं० यालिन् । साँ' को धारण करनेवाला । उ.- संयो०क्रि०-जाना । निरगुण निरज कुवंष कपाली | अकुल अगेह दिगंयर ब्याली। 'ब्योची-संशा खा० [हिं० व्योचना ] उल्टी । वमन । के। -तुलप। ज्योत-संशास्त्री० पुं० [सं० व्यवरथा] (1) व्यवस्था।हाल मामला। ग्याल-संशा पु० [सं० विहार ? ] वह भोजन जो सायंकाल के माजस । ग्योरा । विवरण। उ०-छवै छिगुनी पहुँचौ गिलत गमय किया जाता है। रात का खाना । च्यारी । उ.--- । अति दीनता दिखाय । वलि वामन को न्योत सुनि को बलि महाराज इधर आय परमानंद से म्याट, कर सोये। तुमहि पत्याय।-बिहारी । (२) कोई काम करने का ढंग। लल्ला० । तथ। विधि । विधान । तरीका । साधन-प्रणाली । न्याह-संक्षा पु० सं० विवाह] देश, काल और जाति के नियमानु (३) युक्ति। उपाय । उ०-(क) मारिए कागही मोहि' सार वह रीति या रस्म जिससे स्त्री और पुरुष में पति पत्नी : पै लै सिर मेरे ही केतिको व्याप्त बतावत ।-चेनी। का संबंध स्थापित होता है। विवाह । वि० दे० "विवाह"। (ख) ए दई ऐसो कछू करु ज्योत जु देवे अदेखिन के रंग उ०—(क) पड़े पढ़ाये कछु नहीं ग्राझ भक्ति ना जान । दरगै ।--पद्माकर । (५) आयोजन । भूमिका । उपक्रम । ध्याह श्राचे कारणे यया सूंदा तान ।—कबीर (ख) हिम किसी काम को करने की तैयारी । जैसे,--वह ऊपर चढ़ने हिमसैल-सुता-सिव-न्याहू । सिसिर सुम्बद प्रभु जनम की ज्योत कर रहा है। उछाह ।-तुलसी। मुहा०-ज्योत बाँधना=आयोजन करना । क्रि० प्र०—करना । होना। (५) संयोग । अवसर । नौयत । उ०-साहि यो जकि पर्या-विवाह । उपयम । परिणय । उद्वाह । उपयाम । दार-! सिवराज रहो तकि, और चाहि हो कि बमे ब्योत अन- परिग्रह । पाणिग्रहण । दारकर्म। बन के। भूषण । (६) प्रबंध । इन्तज़ाम । व्यवस्था । म्याहता-वि० [सं० विवाहित ] जिसके साथ विवाह हुआ हो। हौल । जैसे,—तुमने अपनी ब्योंत तो कर ली; और किसी जैसे, म्याहता औरत । को चाहे मिके या न मिले। संज्ञा पुं० पति। क्रि० प्र० करना।बैठाना ।