पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२५२० ब्रह्मचर्य परमाणु है, उस प्रकार ब्रह्म परिणामी या आरंभक नहीं। शुभ कहा गया है। (१०) संगीत में ताल के चार भेदों में वह जगत् का अभिन्न-निमित्तोगदान विवर्सि कारण है, से एक। जैसे मकहा, जो जाले का निमित्त और उपादान दोनों कही । ब्रह्मकन्यका, ब्रह्मकन्या-संज्ञा स्त्री० [सं० ] (1) जमा की कन्या, जा सकती है । सारांश यह कि उगत् ब्रह्म का परिणाम सरस्वती । (२) भारंगी नाम की बूटा जो दवा के काम में या विकार नहीं है, विवत है। किसी वस्तु का कुछ और आती है। प्राझी बूटी। हो जाना विकार या परिणाम है। उपका और कुछ प्रतीत ब्रह्मकर्म-संशा पुं० [सं० ब्रह्मकर्मन् ] (1) वेद विहित कर्म । होना विवत है। जैप,-ध का दही हो जाना विकार है, (२) ब्राह्मण का करें । रस्सी का साप प्रतीत होना विवर्त्त है। यह उगत् ब्रह्म का ब्रह्मकला-संज्ञा स्त्री० [सं०] दाक्षायनी। विवर्स है, अत: मिथ्या या भ्रम रूप है । ब्रह्म के अतिरिक्त ब्रह्मकल्प-संज्ञा पुं० [सं० ] (1) बझा तुल्य । (२) उतना समय और कुछ सत्य नहीं है। और जो कुछ दिखाई पड़ता है, जितने में एक ब्रह्मा रहते हैं। उसकी पारमार्थिक सत्ता नहीं है । चैतन्य आत्मवस्तु के ! ब्रह्मकांड-संशा पुं० [सं० ] बंद का वह भाग जिसमें ब्रह्म की अतिरिक्त और किसी वस्तु की सत्ता न स्वगत भेद के रूप मीमांसा की गई है और जो कर्मकांड से भित्र है। ज्ञानकांड। में, न सजातीय भेद के रूप में और न विजातीय भेद के अात्म। रूप में सिद्ध हो सकती है। अतः शुद्ध अद्वैत दृष्टि में ब्रह्मकाय-संज्ञा पुं० [सं०] एक विशेष जाति के देवता । जीवात्मा ब्रह्म का अंश ( स्वगत भेद नहीं है, अपने को : ब्रह्मकाप्ट-संज्ञा पुं० [सं०] तूत का पेड़। शहतूत । परिच्छिन्न और माया-विशिष्ट समझता हुआ ब्रह्म ही है। ब्रह्मकुशा-संज्ञा स्त्री० [सं० ] अजमोदा । 'सत्' पदार्थ केवल एक ही हो सकता है। दो सत् पदार्थ ब्रह्मवर्च-संशा पु० [सं० ] रजस्वला के स्पर्श या इसी प्रकार की मानने से दोनों को देश या काल से परिच्छिा मानना । और अशुद्धि दूर करने के लिये एक प्रत जिसमें एक दिन पड़ेगा । नाम और रूप की उत्पत्ति का ही नाम सृष्टि है। निराहार रहकर दूसरे दिन पंचगव्य पिया जाता है। नाम और रूप बया के अवयव नहीं; क्योंकि वह तीनों प्रकार . ब्रह्मकोशी-सं० स्त्री० [सं०] अजमोदा। के भेदों से रहित है । अतः अद्वत ज्ञान ही सत्य ज्ञान है, ब्रह्मक्षत्र-संक्षा पुं० [सं०] बाह्मण और क्षत्रिय से उत्पन्न एक जाति। दैत्य या नानात्व ज्ञान अज्ञान है, भ्रम है। 'ब्रह्म' का (विष्णु पु.) सम्यक निरूपण करनेवाले आदि प्रय उपनिषद है। उनमें ब्रह्मगति-संशा स्त्री० [सं०] मुक्ति । नजात । 'नेति' 'नेति' ( यह नहीं, यह नहीं ) कहकर ब्रह्म प्रपंचों ब्राह्मगाँठ-संज्ञा स्त्री० [सं० ब्रह्म ग्रंथि ] जनेऊ की गाँठ। से परे कहा गया है। 'तरवमसि' इस वाक्य द्वारा आरमा ब्राह्मगोल-संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मांड । और ब्रह्म का अभेद व्यजित किया गया है। ब्रह्म संबंधी ब्रह्मप्रंथि-सशा स्त्री० [सं०] यज्ञोपवीत या जनेऊ की मुख्य गाँठ। इस ज्ञान का प्राचीन नाम ‘ब्रह्म विद्या' है, जिसका उपदेश : ब्रह्मप्रह-संशा पुं० [सं० ब्रह्म राक्षस । उपनिषदों में स्थान स्थान पर है। पंहे ब्रह्मतत्व का व्यव- ब्रह्मघातक-संशा पुं० [सं०] ब्राह्मण की हत्या करनेवाला। स्थित रूप में प्रतिपादन व्यास द्वारा 'ब्रह्मसूत्र' में हुआ, : ब्रह्मघातिनी-वि० स्त्री० [सं०] (१) ब्राह्मण को मारनेवाली। जो वंदांन दर्शन का आधार हुआ । दे. "वेदांत"। (२): (२) रजस्वला होने के दूसरे दिन स्त्री की संज्ञा (छूत के ईश्वर । परमात्मा । (३) आला । चैतन्य । जैसे,-जैस विचार से)। तुम्हारा ब्रह्म कहे, वैपा करो । (४) बाह्मण (विशेषत: ममम्त ब्रह्मधाती-वि० [सं० ब्रह्मघातिन् ] [ स्त्री० ब्रह्मघातिनी ] ब्राह्मण को पदी में) । जैसे,-ब्रह्मद्रोही, ब्रह्महत्या । उ०-चल न ब्रह्म-: मार सलनेवाला । ब्रह्म हत्या करनेवाला । कुल सन धरिआई। सत्य कही दोउ भुजा उठाई।- ब्रह्मघोष-संज्ञा पुं० [सं०] (१) वेदध्वनि । (२) वेदपाठ । उ०--- तुलमी। (५) प्रक्षा (समास में)। जैम, ब्रह्मसुता, भाँति भाँति कहौं कहाँ लगि बाटिका बहुधा भली । ब्रह्मयोष महाकन्यका । (६) ब्राह्मण जो मरकर प्रेत हुआ हो। धने तहाँ जनु है गिरा बन की थली। ब्राह्मण भूत । प्राराक्षस । उ.-तासु सुता रहि सुछबि ! ब्रह्मचक-संशा पु० [सं०] संसारचक्र। (उ.निषद्) विशाला । ताहि लग्यो इक प्रह्म कराला । धुराज। ब्रह्मचर-संगा पुं० [सं० अागाह्मण+पर-भोजन ] वह माफी मुहा०-अझ लगना=किसी के ऊपर प्रामण प्रेत का अधिकार । ज़मीन जो प्राह्मण को पूजा आदि करने के बदले में दी जाय। होना। ब्रह्मचर्य-संशा पुं० [सं०] (1) योग में एक प्रकार का यम । (७) वेद । (८) एक की संख्या । (९) फलित ज्योतिष में वीर्य को रक्षित रखने का प्रतिबंध । मैथुन से बचने की २. योगों में से पच्चीसवाँ योग जो सब कार्यों के लिये ! साधना।