पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२२८

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ब्रह्मचारिणी
ब्रह्मद्रव
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विशेष---शुक्र धातु को विचलिप्त न होने देने से मन और ब्रह्मजीवी-वि० [सं० ब्रह्मा जाविन ] श्रौत आदि कर्म करा कर बुद्धि की शक्ति बहुत बढ़ती है और चित्त की चंचलता नष्ट जीविका चलानेवाला। होती है। ब्राह्मा-वि० [सं०] ब्रह्म को जानने वाला वेदांत का तव समझने- (२) चार आश्रमों में पहला आश्रम । आयु या जीवन के वाला। ज्ञानी। कर्सम्यानुसार चार विभागों में में प्रथम विभाग जिसमें ब्रह्मज्ञान--संशा पु० [सं.] ब्रह्म का बोध । पारमार्थिक ससा का पुरुष को स्वीसंभोग आदि ध्यसनों से दूर रहकर केवल बोध । दृश्य जगत् के मिथ्याव का निश्चय और एकमात्र अध्ययन में लगा रहना चाहिए। शुद्ध निर्गुण चैत य की जानकारी।अत सिद्धांत का बोध । विशेष-प्राचीन काल में उपनयन संस्कार के उपरांत बालक उ.-बहाज्ञान बिनु नारि नर कहहि न दृसरि बात ।- इस आश्रम में प्रवेश करता था और आचार्य के यहाँ तुलन्थी। रहकर वेद शास्त्र का अध्ययन करता था। ब्रह्मचारी प्रत्यक्षानी-वि० [सं० ब्रह्मशानिन । परमार्थ स्त्र का बोध रखने- के लिये मध मांस ग्रहण, गंध द्रव्यर वन, स्वादिष्ट और वाला । अद्वैतवादी। मधुर वस्तुओं का खाना, स्त्री-प्रसंग करना, नृत्य, गीतादि ब्रह्मण्य-वि० सं०] (१) ब्राह्मणनिष्ठ । ब्राह्मणों पर श्रद्धा रखने- देखना-सुनना सारांश यह कि सब प्रकार के व्यसन वाला । उ.-प्रभु ब्रह्मण्य देव मैं जाना। मोहि हित पिता निषिद्ध थे । उसे अच्छे पवित्र गृहस्थ के यहाँ से भिक्षा तजे भगवाना -तुलसी । (२) ब्रह्म या ब्रह्मा संबंधी। लेना और आचार्य के लिये आवश्यक वसुओं को संज्ञा पुं० सूत का पेड़ । शहतून । जुटाना लता था। भिक्षा माँगने में गुरु का कुल, अपना ब्रह्मनाल-संज्ञा पुं० [सं०] १५ मात्राओं का ताल । इसमें 1. कुल और नाना का कुल बचाना पड़ता था । पर यदि आघात और खाली रहने हैं। भिक्षा घोग्य कोई गृहस्थ न मिल्.सा तो वह नाना-मामा ब्रह्मतीर्थ-संज्ञा पुं० [सं०] नर्मदा के तट पर एक प्राचीन तीर्थ के कुल से मांगना प्रारंभ कर सकता था। नित्य समिधः (महाभारत)। काष्ठ छन ने लाकर प्रातः सायं होम करना होता था। यह ब्रह्मत्व-संभा पुं० [सं०1 (1) शुन्द ब्रह्म भाव । (२) बाह्मणस्व । होम यदि छूट जाता तो अवक.र्णी प्रायश्चित्त करना पड़ता (३) ब्रह्मा नामक अस्विक् होने का भाव या धर्म । था । ब्राहमण ब्रह्मचारी के लिये एकान्त भोजन आवश्यक ब्रह्मदंड-संज्ञा पु० [सं०] (1) ब्राह्मण याचारी का डंडा । (२) होता था, पर क्षत्रिय और वैश्य ब्रह्मचारी के लिये नहीं। तं.न शिखावाला केतु । (३) ग्राह्मण का शाप । ग्रह्मचारी के लिये भिक्षा के समय आदि को छोड़ या ब्रह्मदंडी-मशा स्त्री॰ [ 10 ] एक जड़ा जो जंगलों में प्रायः पाई आचार्य की ऑग्व के सामने रहना कर्तव्य था । आचार्य जाती है। इसकी पत्तियों और फलों पर काँटे होते हैं। वैद्यक न हो तो आचार्य पुत्र के पाप, वह भी न हों तो अग्निहोत्र में इसे गरम और कड़वी तथा कफ और वातनाशक माना की अग्नि के पाय रहना होता था। गया है। प्राचार्य दो प्रकार का कहा गया है—एक उपकुर्वाण जो पर्या-अजदंती । कटपत्रफला । गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के पूर्व वय द्विजों का कर्तव्य है। ब्रह्मदर्भा-संज्ञा स्त्री० [सं० 1 अजवाइन । दूसस नैष्ठिक जो आजीवन रहता है। ब्रह्मदाता-संशा स्त्री० [मं. अामदान ] बंद पड़ानेवाला आचार्य । ब्रह्मचारिणी-सः श्री. [सं०] (1) अहमचर्य व्रत धारण करने. ब्रह्मदान-संगा पुं० [ 10 ] वेद-विद्या देना । वेद पढ़ाना । वाली स्त्री । (२) दुर्गा । पार्वतः । गौरी । (३) सरस्वतः। ब्रह्मदाय-संज्ञा पुं० [सं० | बंद का वह भाग जिसमें ब्रह्म का (५) भारंगी बृटी। निरूपण है। ब्रह्मचारी-संज्ञा पुं० [सं० ब्रह्मचारिन् ] { स्त्रीब्रहाचारिणी ] (1) ब्रह्मदारु-संशा ५० [म. ] तूत का पेड़ । शहतत । ब्रह्मचर्य का इत धारण करनेवाला । (२) ब्रह्मचर्य आश्रम ब्रहदिन-संज्ञा पुं० [सं० ] ग्रहमा का एक दिन जो १०० के अंतर्गत व्यक्ति । स्त्री-संसर्ग आदि व्यत्यनों से दूर रहकर चतुर्युगियों का माना जाता है। पहले आश्रम में विद्याध्ययन करनेवाला पुरूष । प्रथमाश्रमी। ब्रह्मदेया-वि० मी० | मं• ] ब्रह्मविवाह में दी जानेवाली (कन्या)। ब्राह्मज-संक्षा पुं० [सं०] (1) हिरण्यगर्भ । (२) ब्रह्मा । (३) ब्रह्मदैत्य-संशा पुं० [सं० ] ब्राह्मण प्रेत । ब्रह्म राक्षस । बझ से उत्पन्न जगत् ब्रह्मदाप-संज्ञा पुं० [सं०] ब्राह्मण को मारने का दोष। ब्रह्म-हत्या ब्रह्मजटा-संशा स्त्री० [सं०] दौने का पौधा । मनक। का बुरा प्रभाव । जैसे,—इस कुल में ब्रह्मदोष है। ब्रह्मजन्म-संज्ञा पुं० [सं०] उपनयन संस्कार । ब्रह्मदोषी-वि० [सं०] वह जिसे ब्रह्महत्या लगी हो। ब्रह्मजार-संज्ञा पुं० [सं०] (१) ग्राह्मणी का उपपति। (२) इंद्र। ब्रह्मद्रव-संज्ञा पुं० [सं० ] गंगाजल ।