पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२२९

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ब्रह्मद्रुम ब्रह्मरात्र ब्रह्मद्रम-संज्ञा पुं० [सं०] पलास । टेसू ।। का अभिप्राय है जिसे गांगेय वंश के राजा घोडगंग ने वि. ब्रह्मद्राही-वि० [40] ब्राह्मणों रंग बैर रखनेवाला। संवत् ११३४ में बनवाया था । उत्तरखंड में भारवार की ब्रह्मद्वार-संशा पु० [सं० ] खोपड़ी के बीच माना हुआ वह छेद 'बलजा' नदी का माहाम्य है। कृष्ण की कथा भी आई है, जिससे योगियों के प्राण निकलते है।प्रारंध्र । ब्रह्मछिन् । पर अधिकतर वर्णन तीयों और उनके माहात्म्य का है। उ.--(क) पट दल अट द्वादश दल निर्मल अजपा जार ब्रह्मफाँस-संज्ञा स्त्री० दे० "ब्रह्मपाश" जपाली। त्रिकुटी संगम ब्रह्मद्वार भिदियों मिलिह बनमाली। ब्रह्मबंध-संज्ञा पुं० [सं०] वह ब्राह्मण जो अपने कर्म से हीन -सूर । (ख) ब्रह्मद्वार फिरि फोरि के निकसे गोकुल राय। हो । पतित श्राह्मण । --सूर। ब्रह्मबल-संशा पुं० [सं०] वह तेज या शक्ति जो ब्राह्मण को तप ब्रह्मनाभ-संशा पु० [सं०] विष्णु। आदि द्वारा प्रास हो। ब्राह्मण की शक्ति । ब्रह्मनिष्ठ-वि० [सं०] (1) बाह्मण-भक्त । (२) बमज्ञान संपन्न । ब्रह्मभूमिजा-संशा पुं० [सं०] सिंहली । संज्ञा पु० पारिस पीपल। ब्रह्मभूय-संज्ञा पुं० [सं०] (1) बाल । (२) मोक्ष । ब्रह्मपत्र-संश पुं० [सं.] पलाय का पत्ता । ब्रह्मभोज-संज्ञा पुं० [सं०] प्राह्मणों को खिलाने का फर्म । ब्रह्मपद-संज्ञा पुं० [सं०] (1) ब्रह्मव। (२) माक्षत्व । (३) ब्राह्मण भोजन । मोक्ष । मुक्ति। ब्रह्ममंडूकी-संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) मजीठ । (२) मंडूकपर्णी । ब्रह्मपर्णी-संज्ञा स्त्री० [सं० ] पिठबन नाम की लता । (३) भारंगी। ब्रह्मपवित्र-संज्ञा पुं० [सं०] कुश । हामति-संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों में एक प्रकार के उपदेवता ग्रह्मपादप-संक्षा पु० [सं०] पलाश का पेछ । ( ललितविस्तर)। ब्रह्मपाश-संशा पुं० [सं०] ब्रह्मा का दिया हुआ पाश नामक अस्त्र। ब्रह्ममुहर्त-संज्ञा पुं० [सं०] बड़े तड़के का समय । सूर्योदय से (पाश या फंदे का प्रयोग प्राचीन काल में युद्ध में होता था)। ३-४ घड़ी पहले का समय । उ०-(क)प्रामुहरत प्रयापुत्र-संहा पुं० [सं०] (1) ब्रह्मा का पुत्र । (२) नारद । (३) भयो सबेरो जागे दांड भाई।-सूर । (ख) प्रक्षमुहस्त वशिष्ठ । (४) मनु । (५) मरीधि । (६) सनकादिक । (७). जानि नरेशा । आयो निज यदुनाथ निवेशा । पखुराज । एक प्रकार का विष । यह एक पौधे का कंद है जो मलया- ब्रह्ममेखल-संशा पु० [सं०] मुंज सृण । पूँज । चल पर होता है। इसका प्रयोग रसायन और वाजीकरण : ब्रह्ममेध्या-संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नदी ( महाभारत )। में होता है। (4) एक नद जो मानसरोवर से निकलकर ब्रह्मयश-संशा पुं० [सं०] (1) विधिपूर्वक वेदाभ्यास । (२) हिमालय के पूर्वीय प्रांत से भारतवर्ष में प्रवेश करता है और वेदाध्ययन । वंद पढ़ाना। आसाम, बंगाल होता हुआ बंगाल की खाड़ी में गिरता है। ब्रह्मयष्ठि-संज्ञा स्त्री० [सं०] भारंगी । बम्हनेटी। इसका प्राचीन नाम लौहित्य है। अमोधानंदन नाम भी ब्रह्मयामल-संशा पुं० [सं०] एक तंत्र ग्रंथ। मिलता है। ब्राह्मयोग-संशा पुं० [सं०] १८ मात्राओं का एक ताल जिसमें ब्रह्मपुत्री-संक्षा खा. [सं०] (१) सरस्वती। (२) सरस्वती नदी। १२ आघास और ६ खाली होते है। (३) बाराहीकंद। ब्रह्मयोनि-संशा स्त्री० [सं० ] (1) एक तीर्थ स्थान जो गया जी ब्रह्मपुर-संवा पुं० [सं०] (१) ब्रह्मलोक । (२) ब्रह्म के अनुभव में है । (२) ब्रह्म की प्राप्ति के लिये उसका ध्यान । का स्थान, हृदय । (३) ईशान कोण में स्थित एक देश ग्रहह्मरंध्र-संज्ञा पुं० [सं०] मूर्द्धा का छेद । ब्रह्माश द्वार । मस्तक ( बृहत्संहिता)। के मध्य में माना हुआ गुप्त छेद जिससे होकर प्राण निकलने ब्राह्मपुगण-संशा पु० [सं०] अठारह पुराणों में से एक । से ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है। कहते है कि योगियों के विशेष-पुराणों में इसका नाम पहले आने से कुछ लोग इसे ' प्राण इसी रंध्र से निकलते हैं। उ०-ब्रहारंध्र फोरि जीव आदि पुराण भी कहते हैं। मरस्यादि पुराणों में इसके श्लोकों। यो मिल्यो बिलोकि जाह। गेह चूरि ज्यों चकोर चन्द्र में की संक्या दस हजार लिखी है। पर आज कल .... मिलै उडाए ।-केशव। सोकों का ही यह पुराण मिलता है। जिस रूप में यह ब्रह्मराक्षस-संशा पुं० [सं०] (1) प्रेत योनि में गया हुआ पुराण मिलता है, उस रूप में प्राचीन नहीं जान पड़ता। माक्षण । वह प्राक्षण जो मरकर भूत हुआ हो (२) महादेव इसमें 'पुरुषोत्तम क्षेत्र' का बहुत अधिक वर्णन है। जगमाय का एक गण। जी और कोणादिस्य के मंदिर आदि का ४० अध्यायों में वर्णन ब्रह्मरात-संज्ञा पुं० [सं०] (1) शुकदेव । (२) याज्ञवल्क्य मुनि । है।"पुरुषोत्तम प्रासाद" से जगनाथ जी के विशाल मंदिर | ब्रह्मरात्र-संज्ञा पुं० सं०] शेष चार माहमुहूर्त।