पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२३७

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भंडि २५३० भँवरकली -- ' पदधारि भंडारि।-तुलमी। (२) तोशाग्याने का दारोगा। उता है। पकड़ने पर यह अपने परों को हिलाकर मन भंडारे का प्रधान अध्यक्ष । उ०-पद्मावति पहँ आर भन शब्द करता है। इसे जुलाहा भी कहते है। उ.- भैरारी । कहे मि मंदिर महँ परी मजारी, जायपी। (३) बाल अवस्था के तुम धाई। उड़त मैंभीर पफरी जाई।- रसोइया । रसोईदार। भंडि-संज्ञा स्त्री० [सं०] लहर । बाधि। भंभेरि*-संज्ञा स्त्री० [हिं० भैभरना ] भय । डर । उ.-राज भंडित-संशा पु० [सं०] एक गोत्रकार ऋषि का नाम । मराल को बालक पेलि के पालत लालत धूपर को। सुचि भंडिर-संज्ञा पु० [सं० | सिरसा । शिरीष । सुदर सालि सकेलि सुवारि के बीज बटोरत ऊसर को। भंडिल-संसा पुं० [सं०] (१) सिरस का पेड़। (२) दूत । (३) गुन ज्ञान गुमान #भेरि बड़ी कलपद्रुम काटत मूसर को। शिल्पी । कलिकाल अचार विचार हरी नहीं सूझे कछू धमधूसर वि. अपना । शुभ। को । सुलसी। भंडीतकी संज्ञा स्त्री० [सं० } मजीठ । 'भैमर, भैमरा-संशा पुं० [सं० भ्रमर ] (१) बड़ी मधुमक्खी । भंडीर-संशा पुं० [सं०] (1) चौलाई । (२) सिरसा । (३) सारंग। डंगर । (२) बरें । भिव। बट । (४) भँडभाड । भँवना-क्रि० अ० [सं० भ्रमण ] (1) घूमना। फिरना । उ०- भंडीरलतिका संज्ञा स्त्री० [सं०] मजीठ । (क) लंपट लुदुध मन भव से मैंवत कहा करि भूरि भाव भंडीरी-संशा श्री० [सं०] मंजिष्ठा । मजीठ । ताकी भावना-भवन में। मतिराम । (ख) भौर ज्यों जगत भंडक-संक्षा पु० [सं०] (1) भाकुर नामक मछली । (२) श्यो निशिचातक ज्यों भैवत श्याम नाम तेरोई जपत है। केशव । (२) चकर लगाना । उ-केशोदास आस पास भैवत भंडेरिया-मंशा पुं० दे० "भंडरिया"। भँवर जल केलि में जलजमुखी जलज सी सोहिये । केधाव । भंडेरियापन-संज्ञा पुं० [हिं० भेंडरिया+पन (प्रत्य॰)] (1) बोग। भँवर-संज्ञा पुं० [सं० भ्रमर, पा० भमर, प्रा. भँवर ] (1) भीरा । मक्कारी। (२) चालाकी । उ०—कुदरत पाई वीर सो चित सो चित्त मिलाय । भँवर भँडीआ-संशा पुं० [हिं० भाँड ] (1) भाँड़ों के गाने का गीत। विलंबा कमल रस अब कैसे उडि जाय ।-कभीर । (२) ऐसा गीत जो सभ्य अथवा शिष्ट समाज में गाने के योग्य पानी के बहाव में वह स्थान जहाँ पानी की लहर एक केंद्र न समझा जाय। (२) हास्य आदि रसों की साधारण पर चक्राकार घूमती है। ऐसे स्थान पर यदि मनुष्य या अधवा निम्न कोटि की कविता । नाव आदि पहुँच जाय, तो उसके डूबने की संभावना भँधुरी-संशा स्त्री० [हिं० बनूर ] बबूल की जाति का एक पेड़ रहती है । आवर्त । चक्कर । यमकातर । उ०—(क) तड़ित जिसे फुलाई भी कहते हैं। दे० "फुलाई"। विनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीन । नाभि मनोहर लेत

  1. भरना-क्रि० अ० [हिं० भय+रना (प्रत्य॰)] [ संवा भंभेरिया ] जनु जमुन-ॐवर छवि छीन ।-सुलसी। (ख) भागहरे

भयभीत होना । ररना । भागी भैया भागनि ज्यों भाग्यो, पर भव के भवन मांस

  1. भा-संज्ञा पुं० [सं० भंसस् ] बिल।छेद।

भय को भंवर है। केशव । भँभाका-संज्ञा स्त्री० [हिं० भंभा ] अधिक अवस्था की स्त्री की क्रि० प्र०-ना। भग (बाजारू)। मुहा०—भवर में पड़ना-चक्कर में पड़ना । घबरा जाना ।

  1. भाना-कि० अ० [ अनु० ] गौ आदि पशुओं का चिल्लाना । यौ०-भंवरकली । भंवरजाल ! भंवर भीख ।

भाना 1 उ.--पपने में गई मस्त्रि देखन हौ सुनु नाचत (३) गवता । गर्त । उ०—उरज भंवरी भवर मानो मीन नंद जसोमति को नट । वा मुसुकाय के भाव यताय के मणि को कांति । भृगुचरण हृदय चिह्न ये संब, जीव जल मेरोई ऐधि खरो पकरी पट । ती लगि गाय भैभाय उठी बहु भाँति ।-सूर । कवि देव बधू न मध्यो दधि को मट । जागि परी तौ न भंवरकली-संशा स्त्री० [हिं० भंवर+कली ] लोहे वा पीतल की कान्ह कहूँ न फर्द को कुज न कालिंदी को तट ।-देव । वह कबी जो कील में इस प्रकार जड़ी रहती है कि वह भैंभीरी-संज्ञा स्त्री० [ अनु.] एक पतिंगा जिसकी पूंछ लंबी और . जिधर चाहे, उधर सहज में खुमाई जा सकती है। यह पतली, रंग लाल और बिलकुल झिल्ली के समान पारदर्शक प्रायः पशुओं के गले की सिकदी या प आदि में लगी चार पर होते हैं। इसकी आँखें टिडी की आँखों की तरह रहती है। पशु चाहे जितने धार लगावे, पर इसकी सहा- बड़ी और ऊपर निकली रहती है । यह वर्षा के अंत में यता से उसकी सिकड़ी में बरू नहीं पड़ने पासा । घूमने- दिखाई पड़ता है और प्रायः पानी के किनारे घासों के उपर वाली कुशी या फड़ी।