पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२३८

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भँवरगीत २५३१ भकूट भँघरगीत-संज्ञा पुं० दे० 'भ्रमरगीत" । जैसे, भेंसता जहाज़। (..) । (२) पानी में का मैंघरजाल-संज्ञा पुं० [हिं० भेवर+जाल ] संसार और सांसारिक ! या फेंका जाना। दे. "भसाना" । झगड़े बखेरे । भ्रमजाल । उ॰—अँवरजाल में आसन । भैंसरा-संज्ञा पु० दे० "भैजनी"। माया । चाहत सुख दुख संग न छाया ।-कबीर। भ-संशा धुं० [सं०] (1) नक्षत्र । (२) प्रह । (३) राशि । (४) भंवरभीख-संज्ञा स्त्री० [हिं० भँवर-+भीख ] वह भीख जो भौरे के शुक्राचार्य। (५) भ्रमर । भौंरा । (६) भूधर । पहाब। (७) समान घूम फिर कर मांगी जाय । तीन प्रकार की भिक्षा भ्रांति । (८) छंद-शास्त्रानुसार एक गण का नाम जिसके में से दूसरी । उ०-भैवर भीख मध्यम कही सुनौ संत आदि का वर्ण गुरु और शेष दो लघु होते हैं (sI)। भगण । चित लाय । कहै कबीर जाको गही मध्यम माहिं | भइया-संक्षा पुं० [हिं० भाई+च्या (प्रत्य०)1 (1) भाई । (२) एक समाय । -कवीर। आदरसूचक शब्द जिसका व्यवहार प्रायः परावरवालों के भँवरा-संज्ञा पुं० दे. "मौरा"। लिये होता है। मैंपरी-संज्ञा स्त्री० [हिं० भंवरा ] (1) पानी का कर । भंवर। | भउजाई* 1-संज्ञा स्त्री० दे० "भौजाई"। (२) जंतुओं के शरीर के ऊपर वह स्थान जहाँ के रोएँ भक-संज्ञा स्त्री० [ अनु० ] सहसा अथवा रह रहकर आग के जल और बाल एक केंद्र पर घूमे हुए हों। बालों का इस: उठने अथवा वेग से धुएँ के निकलने के कारण उत्पन्न होने- प्रकार का घुमाव स्थान-भेद से शुभ अथवा अशुभ लक्षण वाला शब्द । इसका प्रयोग प्राय: "से" विभक्ति के साथ माना जाता है। उ०-श्याम उर सुधा दह मानौ । मलय | होता है । जैसे,—रूप भक से जल उठा। चंदन लेप की हे बरन यह जानौ । मलय तनु मिलि भकक्षा-संज्ञा स्त्री० [सं०] नक्षत्रकना । लसति सोभा महा जाल गंभीर । निरखि लोचन भ्रमति ! भकटाना:-क्रि० अ० दे. "भकपाना"। पुनि पुनि धरत नहिं मन धीर । उरज भँवरी भवर, मानों भडनारे-क्रि० अ० दे. "भगरना"। मीन मणि का कांति । भृगुचरण हृदय चिद ये सब जीव भराधा-संज्ञा स्त्री० [हिं० भगरना अथवा भक+गंध ] अनाज जल बहु भाँति ।-सूर। के सबने की गंध । सड़े हुए अनाज की गंध । संज्ञा स्त्री० [हिं० भवरना वा भैवना ] (१) दे. "भाँवर"। भकराधा-वि० [हिं० भकधि+आ (प्रत्य॰)] सड़ा हुआ (अन्न)। (२) बनियों का सौदा लेकर घूम घूमकर बेचना । फेरी।। भकसा-वि० [हिं० भकमाना या भकटान ] ( खाद्य पदार्थ) (३) रक्षक, कोतवाल या अन्य कर्मचारियों का प्रजा की जो अधिक समय तक पढ़ा रहने के कारण कसैला हो गया रक्षा के लिये चक्कर लगाना । फेरी । गश्त । उ.-फिर हो और जिसमें से एक विशेष प्रकार का दुर्गंध आती हो। पाँच कुतवार सु भंवरी । काँप पाउँ चपत बहि पारी।- बुसा हुआ। जायसी। भकसाना-कि० अ० [हिं० कसाव ) किसी स्वाच पदार्थ का क्रि० प्र०-~-फिरना । —लगाना । अधिक समय तक पड़े रहने अथवा और किसी कारण से (४) परिक्रमा । (स्त्रियाँ) बदबूदार और कसैला हो जाना। कि०प्र०---देना। भकाऊँ-संज्ञा पुं० [अनु० ] बच्चों को हराने के लिये एक कल्पित भँवाना*-क्रि० स० [हिं० भवना ] (1) घुमाना ! फिराना ।! व्यक्ति होवा। चक्कर देना । उ०—(क) म्यारे चंद्र पूर्व फिर जाय । बहु ! भकुत्रा-वि० [सं० भेक ] मूर्ख । मूद। कलेस सों दियस भवाय । —जायसी । (ख) तेहि अंगद : भकुश्राना-क्रि० अ० [हिं० भकुआ ] चकपका जाना । अबरा जाना। कह लात उठाई । गहि पद पटकेउ भूमि भवाई।-तुलसी। क्रि० स० (१) चपका देना। घबरा देना । (२) मूर्ख (२) भ्रम में डालना । उलझन में गलना। बनाना। मैंधारा-वि० [हिं० मॅवना+आरा (प्रत्य॰)] भ्रमणशील । घूमने- | भकुड़ा-संज्ञा पुं० [हिं० भाँकुट ] मोटा गज़ जिससे तोप में बत्ती वाला । फिरनेवाला । उ०-विलग मत मानो ऊधो प्यारे। आदि हूँसी जाती है। यह मधुरा काजर की गवरि जे आवे ते कारे। तुम कारे । भकुड़ाना-क्रि० स० [हिं० भकुड़ा+आना (प्रत्य०) ] (1) लोहे सुफलक सुत कारे कारे मधुप #वारे । ता गुण झ्याम अधिक के गज़ से तोप के मुँह में बसी भरना । (२) लोहे के गज़ छषि उपजत कमल नैन मणि पारे। सूर । (ख) बिबरन से तोप के मुंह का भीतरी भाग साफ़ करना। आनन अरिगनी निरखि भैवारे मोर । दरकि गई आंगी नई भकुवा-वि० दे० "भकुआ" । फरकि उठे कुच कोर।-.स.। भकट-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की राशियों का समूह जो मसला-क्रि० स० [हिं० बहना ] (1) पानी के ऊपर तैरना। विवाह की गणना में शुभ मानी जाती है। (फलित ज्यो०)।