पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२३९

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भकोसना भक्षना - भकोसना-क्रि० स० [सं० भक्षण ] (1) किसी चीज़ को घिना (१२) अनुराग । स्नेह। (१३) शांडिल्य के भक्ति सूत्र के अच्छी तरह कुचले हुए जल्दी जल्दी ग्वाना । निगलना। अनुसार ईश्वर में अत्यंत अनुराग का होना । यह गुण भेद (२) ग्वाना । (व्यंग्य) मे सास्विकी, रातमी और तामसी तीन प्रकार की मानी गई भक्तिका-मंशा श्री० [सं०] मिल्ली। झींगुर । है। भक्तों के अनुसार भक्ति नौ प्रकार की होती है जिसे भक्त-वि० [सं०] (1) बौटा हुभा | भागों में बाँटा हुआ। (२) नवधा भक्ति कहते हैं। वे नौ प्रकार ये है-श्रवण, कीर्तन, बाँटकर दिया हुआ । प्रदत्त । (३) अलग किया हुआ। स्मरण, पाद-सेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, पख्य और आत्म- (४) पक्षपाती । (५) अनुयायी । (६) सेवा करनेवाला । निवेदन । (१४) जैन मतानुसार वह ज्ञान जिसमें निरतिशय भजन करमेवाला । भक्ति करनेवाला । आनंद हो और जो सर्वप्रिय, अनन्य, प्रयोजन विशिष्ट संज्ञा पुं० (१) पका हुआ चावल | भान । (२) धन । (३) तथा वितृष्णा का उदयकारक हो। (१५) गौणवृत्ति । । स्त्री. भक्तिन ] सेवा पूजा करनेवाला पुरुष । उपासक । (१६) भंगी। (१७) उपचार । (२८) एक वृत्त का नाम विशेष-भगवद्गीता के अनुसार आत, जिज्ञासु, अर्थार्थी और जिसके प्रत्येक चरण में तगण, यगण और अंत में गुरु शानी चार प्रकार के भक्त तथा भागवत के अनुसार नवधा होता है। भक्ति के भेद से नौ प्रकार के भक्त माने गए हैं। भक्तिकर-वि० [सं०] (1) भक्ति के योग्य । (२) जिसे देखकर भक्तकर-संशा पुं० [सं०] एक प्रकार का सुगंधित द्रव्य जो अनेक भक्ति उत्पन्न हो । भत्तयुत्पादक । दुसरे द्रव्यों के योग से बनाया जाता है। भक्तिच्छेद-संज्ञा पुं० [सं०] (१) वह चित्रकारी जो रेखाओं भक्तकार-संज्ञा पुं० [सं०] (1) रसोइया । (२) भक्तकर नामक द्वारा की जाय । (२) भक्तों के विशेष चिह्न। जैसे, सुगंधित दम्य । तिलक, मुद्रा आदि। भक्तजा-संज्ञा स्त्री० [सं०] अमृत । भक्तियाग-संभा पुं० [सं०] (1) उपास्य देव में अत्यंत अनुरक्त भक्तता-संशा स्त्री० [सं०] भक्ति । रहना । सदा भगवान में श्रद्धापूर्वक मन लगाकर उनकी भक्ततूर्य-संशा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का उपासना करना । (२) भक्ति का साधन । वाजा जो भोजन करते समय बजाया जाता था। भक्तिल-वि० [सं०] भक्तिदायक । भक्तत्व-संज्ञा पुं० [सं०] किसी के अंग वा भाग होने का भाव।। __संज्ञा पुं० उत्तम घोड़ा। अध्ययीभूत होना । अंगरक्ष। भक्तिसूत्र-संज्ञा पुं० [सं०] वैष्णव संप्रदाय का एक सूत्र ग्रंथ। भक्तदास-संशा पुं० [सं०] वह दास जो केवल भोजन लेकर ही यह ग्रंथ शांडिल्य मुनि के नाम से प्रख्यात है। इसमें भक्ति काम करता हो। यह मनु के अनुसार सात प्रकार के दासों का वर्णन है। में से दूसरे प्रकार का दास है। भक्तोद्देशक-संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों, के प्राचीन संधाराम का भक्तपन-संज्ञा पुं० [सं० भक्त+हिं. पन (प्रत्य॰)] भक्ति । एक कर्मचारी जो इस बात की जाँच करता था कि आज भक्तपुलाक-संज्ञा पुं० [सं०] मांड। पीच । कौन क्या भोजन करेगा। भक्तपच्छल-वि० दे० "भकवरपल"। भक्तोपसाधक-संज्ञा पुं० [सं०] (1) रसोइया । (२) परिवेशक । भक्तवत्सल-वि० [सं० ] [ संशा भक्तवत्सलता ] (1) जो भक्तों भक्ष-संशा पुं० [सं० ] (1) खाने का पदार्थ । भक्ष्य । खाना । पर कृपा करता हो । भक्तों पर स्नेह रखनेवाला । (२) । भोजन । (२) खाने का काम । भक्षण । उ०-शवरी कटुक विष्णु। बेर तजि मीठे भाषि गोद भरि लाई। जूठे की कछु शंकन भक्तशरण-संज्ञा पुं० [सं० ] वह स्थान जहाँ भात पकाकर रखा । मानी भक्ष किये सत भाई।--सूर। जाता है। रसोईघर । भिक्षक-वि० [सं०] [स्त्री० भक्षिका ] खानेवाला । भोजन करने- भक्तशाला-संशाली [सं०] (1) पाकशाला । रसोईघर । (२) वाला । खादक । वह स्थान जहाँ भक्त लोग बैठकर धर्मोपदेश सुनते हों। भक्षकार-संशा पुं० [सं० ] हलवाई। भक्ताई* 1-संज्ञा स्त्री० [हिं० भक्त+आई (प्रत्य॰)] भक्ति। भक्षटक-संज्ञा पुं॰ [सं०] छोटा गोखरू । भक्ति-संज्ञा स्त्री० [सं० ] (१) अनेक भागों में विभक्त करना । भक्षण-संज्ञा पुं० [सं०] [वि. भक्ष्य, भक्षित, भक्षणीय ] (1) बाँटना । (२) भाग । विभाग। (३) अंग! अवयव । (५) भोजन करना । किसी वस्तु को दाँतों से काटकर खाना । खंर । (५) वह विभाग जो रेखा द्वारा किया गया हो। (७)। जैसे, पूना आदि का खाना । (२) आहार । भोजन । विभाग करनेवाली रेखा । (७) सेवा सुचषा । (0) पूजा भक्षना-क्रि० स० [सं० भक्षण ] भोजन करना । खाना। उ०- अचेन । (९) श्रद्धा। (१०) विधास । (11) रचना।। (क) छहूँ रसहूँ धरत आगे बहै गंध सुहह । और भहित