पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२४०

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भक्षित २५३३ भगत अभक्ष भवति गिरा बरणि न गइ।-सूर । (ख) अति सनु से मिल जाता है और इस राह से मल का अंश निकलने धनु रेखा नेक नाकी न जाकी । खल शर खर धारा क्यों लगता है। वैद्यक में भगंदर की उत्पत्ति पाँच कारणों से मानी सह तिग्छ ताकी । विद कन धन धूरे भक्षि क्यों बाज जीवै। गई है और तद्नुसार उसके भेद भी पाँच ही माने गए शिव सिर शशि श्री को राहु कैसे सुछीवै ।-केशव । (ग) हैं-वात, पित्त, कफ, सनिपात और आगंतु; और इनसे जाप्ति ससा दुहुँ आँख रहि नाम कह सब कोय । सूधे सुख उत्पन्न होनेवाले भगंदर क्रमशः शतपानक, उष्ट्रग्रीव, परिस्रावी, मुख भक्षिये उलटे अंबर होय ।-केशव । शंबूकावर्त और उन्मार्गी कहलाते हैं। वैधक में यह रोग, भक्षित-वि० [सं० ] खाया हुआ। विशेष कर समिपातज असाध्य माना गया है। वैचों का मत भक्षी-वि० [सं० भक्षिन् ] [ स्त्री० भक्षिणी ] खानेवाला । भक्षक | है कि भगवर शेग में फुसियों के होने पर दबी खुजलाहट भक्ष्य-वि० [सं०] भक्षण करने के योग्य । खाने के योग्य । उत्पन्न होती है; फिर पीला, जलन और शोफ होता है । कमर ___ संज्ञा पुं० खाद्य । अन । आहार । में पीया होती है और कपोल में भी पीता होती है । वैद्यक भख*-संज्ञा पुं० [सं० भक्ष, प्रा० भक्ख] आहार । भक्ष्य । भोजन। में इस रोग की चिकित्सा प्रण के समान ही करने का उ.-(क) आनंद म्याह करें मस-खावा । अब भस्त्र जन्म विधान है । डाक्टर लोग इसे एक प्रकार का नासूर समझते जन्म कह पावा।-जायसी । (ख) वेद वेदांत उपनिषद हैं और चीर फार के द्वारा इसकी चिकित्सा करते हैं। अरपै सो भख भोक्ता नाहि । गोपी ग्वालिन के मंडल में | भग-संज्ञा पु० [सं०] (१) योनि । (२) सूर्य । (३) बारह सो हँसि जूठन वाहि -सूर । (ग) पट पाखै भख कांकर आदिस्यों में से एक । (५) ऐश्वर्य । (५) छः प्रकार की सफर परेई संग। सुखी परेवा जगत में एक ही बिहंगा विभत्तियाँ जिन्हें सम्यगैश्वर्य, सम्यगयीयं, सम्यग्यश, बिहारी। सम्यक श्रिव और सम्यंज्ञान कहते हैं। (६) इच्छा । (७) मुहा०--भव करना-खाना । उ०-आछे देहु जोगद तौ जनि माहात्म्य । (0) यन। (९) धर्म । (१०) मोश । (11) चालहु यह बात । तिनहि जो पाहन भख करहि अस केहि सौभाग्य । (१२) कांति । (१३) चंद्रमा । (१४) धन । के मुख दाँत ।—जायसी। (१५) गुदा । (१६) पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र । (१७) एक भखना-क्रि० स० [सं० भक्षण प्रा. भक्खन ] (1) खाना। देवता का नाम । पुराणानुसार दक्ष के यज्ञ में वीरभद्र ने भोजन करना । उ०—(क) नीलकंठ कीदा भखै मुख बाके | इनकी आंख फोड़ दी थी। है राम । औगुन वाके लौ नहि दर्शन ही से काम । भगई।-संज्ञा स्त्री० [हिं० भगवा ] लँगोटी। कबीर । (ख) कृमि पायक तेरो तन भखिहैं समुझि देखु भगण-संज्ञा पुं० [सं०] (1) खगोल में ग्रहों का पूरा चक्कर । मन माही। दीन दयालु सूर हरि भजि ले यह यह ३६० अंश का होता है जिसे ज्योतिषीगण यथेरछ औसर फिर नाहीं ।—सूर । (ग) क्यों खरि सीतल राशियों और नक्षत्रों में विभक्त करते है। इस चक्कर को बास को मुख ज्यों भखिये धनसार के साटे। केशव । शीघ्रगामी ग्रह स्वल्प काल में और मंदगामी दीर्घ काल में (२) निगलना। पूरा करते हैं। आजकल के ज्योतिषी इस चक्कर का प्रारंभ भस्खी-संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] एक प्रकार की घास जो दलदलों में रेवती के योगसारा से मानते हैं। सूर्यसिद्धांत में ग्रहों का उत्पन होती है और छप्पर छाने के काम में आती है। भगण सत्युग के प्रारंभ ये माना गया है; पर पिद्धांत इसकी टट्टियाँ भी बनती है। यह नैनीताल में बहुत होती शिरोमणि आदि में ग्रहों के भगण का हिसाब कल्पादि मे है। इसके फल में नारंगी की सी महक होती है। पकने लिया जाता है। (२) छंदःशास्त्रानुसार एक गण जिसमें आदि पर यह पास लाल रंग की हो जाती है। इसे चौपाए बड़े का एक वर्ण गुरु और अंत के दो वर्ण लघु होते हैं। जैसे, चाव से चरते हैं। इसे 'खवी' भी कहते हैं। पाचन, भोजन आदि। भगंदर-संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग का नाम जो गुदावर्त के किनारे | भगत-वि० [सं० भक्त ] [हिं० भगतिन ] (1) संवक । उपासक। होता है। यह एक प्रकार का फोदा है जो फूटकर नासूर उ.-बंचक भगत कहाह राम के । किंकर कंचन कोह काम हो जाता है और इतना बढ़ जाता है कि उसमें से मल मूत्र के।--तुलसी । (२) साधु । (३) जो मांस आदि न खाता मिकलता है। जब तक यह कोबा फूटता नहीं, सब तक हो। सकट का उलटा । (५) विचारवान् । उसे विविका वा पीविका कहते हैं और जब फूट जाता है संमा पुं० (७) वैष्णव वा वह साधु जो तिलक लगाता और तब उसे भांदर कहते हैं। फूटने पर इससे लगातार लाल मांस आदि न खाता हो (२) राजपूताने की एक जाति रंग का फेन और पीव निकलता है। यहाँ तक कि यह छेद का नाम । इस जाति की कन्याएँ वेश्या वृति और नाचने गहरा होता जाता है और अंशको मल और मूत्र के मार्ग गाने का काम करती हैं। दे. "भगतिया"। (३) होली में ६३४