पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२५६

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भधंग भवभामिनी भवंग, भवंगा*-संज्ञा पुं० [सं० भुजंग ] साँप । सर्प । उ० अवलंब मोहि आनको । करम मन बश्चम प्रन सत्य विष सागर लहर तरंगा । यह अहसा कूप भवंगा।-दादू। कहनानिधे एक गति शम भवदीय पदधान की । भवर-संशा पुं० [सं० भ्रमर ] दे. "भंवर"। भवरकली-संज्ञा स्त्री० दे. "भवरफली" भवधरण-संक्षा पुं० [सं०] संसार को धारण करनेवाला, पर- भवरी-संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रमरी ] दे. "भँवरी"। मेश्वर । भवंत-वि० [सं० भवत् ] भवत् का बहुवचन । आप लोगों का । भवन-संशा पुं० [सं०] (1) घर । मकान । (२) प्रासाद । महल। आपका । उ.-अवलंब भवंत कथा जिन्हके । प्रिय संत (३) तर्क शान में भाव । (४) जन्म । उत्पत्ति । (५) सत्ता। अनंत सदा तिन्हके।-तुलसी। (६) छप्पय का एक भेद। भवलिया-संशा स्त्री० [हिं० भवर ] एक प्रकार की नाव जो बजरे : संज्ञा पुं [ सं० भुवन ] जगत । संसार । 30-हरि के जे की तरह की पर उससे कुछ छोटी होती है । इसमें भी बजरे वल्लभ है दुर्लभ भवन साँश तिनही की पदरेणु आशा जिय- की तरह ऊपर छत पटी होती है। भौलिया। कारी है।-प्रियादास। भव-संज्ञा पुं० [सं०] (1) उत्पत्ति । जन्म । (२) शिव । (३)! संज्ञा पुं० [सं० भ्रमण ] कोरह के चारों ओर का वह चकर मेघ । बादल । (४) कुशल । (५) संसार । जगत् । (६) | जिसमें बैल घूमते हैं। सत्ता । (७) प्राप्ति। (८) कारण । हेतु । (९) कामदेव । भवनपति-संज्ञा पुं० [सं०] (१) जैनियों के दस देवताओं का (१०) संसार का दुःख । जन्म मरण का दुःस्व । उ० एक वर्ग जिनके नाम इस प्रकार हैं-असुर कुमार, नाग- कमलनयन मकराकृत कुंडल देवत ही भव भागै।-सूर।। कुमार, तखित्कुमार, सुपर्णकुमार, वह्निकुमार, अनिलकुमार, (११) पत्ता। (१२) प्राप्ति। (१३) मांस । (डिं.) स्तनित्कुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार। संशा पुं० [सं० भय ] सर । उ०--(क) राजा प्रजा भए : (२) गृहस्वामी। घर का मालिका (३) राशिचक्र के किसी गति-भागी । भव संभवित भूरि भव भागी।-रघुराज । घर का स्वामी। ( ज्यो.) (ख) भव भजन रंजन सुर जूथा। प्रातु सदा नो कृपा- 'भवना-कि० अ० [सं० भ्रमण ] घूमना । फिरना । चक्कर खाना । धरूथा।—तुलसी। उ.-भौंर ज्यौं भवत भूतवासुकी गणेश युत मानों मक- वि० (१) शुभ । कल्याणकारक । (२) उत्पन्न । जम्मा दद माल गंगाजल की।-केशव । भवनाशिनी-संज्ञा स्त्री० [सं० ] पुराणानुसार सरयू नदी का एक भवकेतु-संज्ञा पुं० [सं०] बृहत्संहिता के अनुसार एक पुच्छल, नाम । तारा जो कभी कभी पूर्व में दिखाई देता है और जिसकी भवनी-संशा स्त्री० [सं० भवन+ई (प्रत्य॰)] गृहिणी । भार्या । Jछ शेर की पूँछ की भाँति दक्षिणावर्त होती है। कहते हैं स्त्री ! उ०-देवि बड़ो आचरज पुलकि तन कहति मुदित कि जितने मुहर्त तक यह दिखाई देता है, उतने महीने तक : भुविभवनी ।—तुलसी। भीषण अकाल या महामारी आदि होती है। भवनाथ-संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु । भषचक्र-संक्षा पुं० [सं०] बौद्धों के अनुसार वह कल्पित चक्र भवपाली-संज्ञा स्त्री० [सं०] तांत्रिकों के अनुसार भुवनेश्वरी देवी जिससे यह जाना जाता है कि कौन कौन कर्म करने से जो संसार की रक्षा करनेवाली शक्ति मानी जाती है। जीवात्मा को किन किन योनियों में भ्रमण करना पड़ता है। भवप्रत्यय-संशा बी० [सं०] समाधि की एक अवस्था जो प्रकृति ( भिन भिन्न बौद्ध संप्रदायों के अनुसार ये भवचक्र भी लयों को प्राप्त होती है।। कुछ भिन्न भिन्न हैं। भवबंधन-संज्ञा पुं० [सं० ] संसार की झंझट । सांसारिक दुःख भवचाप-संज्ञा पुं० [सं०] शिव जी के धनुष का नाम । पिनाक। और कष्ट।। भवत्-संशा पुं० [सं०] (१) भूमि । जमीन । (२) विष्णु । भवभंजन-संज्ञा पुं० [सं०] (1) परमेश्वर । (२) संसार का नाश वि. मान्य । पूज्य। करनेवाला । काल। भवतव्यता-संशा स्त्री० दे० "भवितव्यता"। भवभय-संज्ञा पुं० [सं० ] संसार में बार बार जन्म लेने और मरने भवती-संछा स्त्री० [सं० ] एक प्रकार का जहरीला बाण । का भय । उ०-त्रिपुरारि त्रिलोचन दिगवसन विषभोजन भयदा-संशा स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की अनुचरी एक मातृका | भवभयहरन ।-तुलसी। का नाम । भवभामिनी-संका स्त्री॰ [सं०] पार्वती । भवानी । उ.--अंत- भवदारु-संचा पुं० [सं०] देवदार । जामिनी भवभामिनी स्वामिनि सो हौं कही चहौं बात मातु भवदीय-सर्व० [सं० ] आपका । तुम्हारा । उ.-नाहिने नाथ! अंत तौ हौं लरिकै।-तुलसी। ६३८