पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२६

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फुट्टल २३१९ । फुरना फुट्टल-वि० [सं० स्फुट, पा० फुट+ऐल (प्रत्य॰)] (1) झुट वा विशेष-'घट' 'पट' आदि अनु० शब्दों के समान यह भी समूह से अलग । अकेला रहनेवाला । (२) जिसका जोड़ान | 'से विभक्ति के साथ ही आता है। हो। जो जोड़े से अलग हो। (विशेषत: जानवरों के लिए) फुरकना-क्रि० स० [ अनु० ] जुलाहों की बोली में किसी वस्तु वि० [हिं० फूटना ] फूटे भाग्य का । अभागा। उ.-रवारथ | को मुँह में घषा कर साँस के ज़ोर से थूकना । सब इंद्रिय समूह पर विरहा धीर धरत । सूरदास घर घर फुरकाना-क्रि० स० दे० "फड़काना"। की फुटेरी कैसे धीर धरत ।—सूर । फुरती-संशा स्त्री० [सं० स्फूति-फुरति ] शीघ्रता । तेजी । उ०- फुदकना-क्रि० अ० [अनु॰] (१) उछल उछल कर कूदना उछलना। द्विविद करि क्रोध मधुपुरी आयो..."लफ्यो बलराम यह (२) हर्ष से फूल जाना । उमंग में आना । फूले न समाना। सुभट बड़ है कोऊ हल मुसल शस्त्र अपनो समान्यो। फुदकी-संशा. स्त्री० [हिं० फुदकना] एक छोटी चिड़िया जो उछल द्विविद शाल को वृक्ष सम्मुख भयो फुरति करि राम उछल कर कूदती हुई चलती है। तनु फेंकि मान्यो।—सूर । फलंग-संशा स्त्री० [सं० पुलक ] वृक्ष वा शाखा का अग्रभाग धा: फुरतीला-वि० [हिं० फुरती+ईला ] [ मी० फुरतीली ] जिसमें फुरती अंकुर । जैसे,—अगर कोई दरख्त की फुनंग पर जा चढ़े... हो। जो सुस्त न हो। जो काम में ढिलाई न करे। तेज़ । तो भी काल नहीं छोड़ता।

फुरना-कि० अ० [सं० स्फुरण, प्रा० फुरण ] (१) स्फुटित

फुन--अन्य० [सं० पुनः ] फिर । पुनः ।। होना । निकलना । उद्भूत होना । प्रकट होना । उदय फुनगी-संज्ञा स्त्री॰ [सं० पुलक ] वृक्ष और वृक्ष की शाग्याओं का ! होना । उ०—(क) लोग जान बौरो भयो गयो यह काशी अग्रभाग । फुनंग। अंकुर । पुरी फुरी मति अप्ति आयो जहाँ हरि गाइये। प्रिया । फुनना-संज्ञा पुं० दे० 'फुदना"। (ख) नील नलिन श्याम, शोभा अगनित काम, पावन फुप्फुस-संज्ञा पुं० [सं०] फेफड़ा। हृदय जेहि उर फुरति ।-तुलसी । (२) प्रकाशित होना। फर्कंदी-संशा बी० [हिं० फूल+फंद ] लहंगे के इज़ारवंद या चमक उठना । झलक पड़ना। उ०-आधी रात बीती स्त्रियों की धोती कसने की डोरी की गांठ जो कमर पर सब सोये जिय जान आन राक्षसी प्रभंजनी प्रभाव सो सामने की ओर रहती है और जिसके खींचने से लहँगा या जनायो है। श्रीजरी सी फुरी भाँति बुरी हाथ छुरी लोह- धोती खुल जाती है। नीवी। उ०-आँगी कसे उकसै कुच: धुरी डीठि जुरी देखि अंगद लजायो है। हनुमान । ऊँचे हँसै हुलसै फुदीन की फूंदें। देव । (३) फड़कना । फड़फड़ाना। हिलना । उ०—(क) उग्यो न फुफकाना-कि० अ० [ अनु० ] फुफकारना । 30--कोप करि जौ धनु जनु वीर विगत महि किधौं कहु सुभट दुरे । रोपे लपन लौं एक फन फुफकावे काली, तो लो धनमाली सोऊ फन ' विकट भृकुटी करि भुज अरु अधर फुरे ।-तुलसी । (ख) पै फिरत है।—पमाकर। अजहुँ अपराध न जानकी की भुज बाम फुरे मिलि लोचन फुफकार--संज्ञा पुं० [अन० ] फूंक जो साँप मुँह पे निकालता है। सों।-हनुमान । (५) स्फुटित होना । उच्चरित होना । साँप के मुंह से निकली हुई हवा का शब्द । फुकार ।फूरकार । मुँह से शब्द निकलना । उ०-(क) इनमें को वृषभानु फुफकारना-क्रि० अ० [ हिं . फुफकार ] साँप का मुँह से फूंक किशोरी......."सूर सोच सुख करि भरि लोचन अंतर निकालना । मुँह से हवा निकालकर शब्द करना । फूत्कार प्रीति न थोरी । सिथिल गात मुख बचन फुरति नहिं है जो करना । जैसे, साँप का फुफकारना। गई मति भोरी।-सूर । (ख) उठि के मिले तंदुल हरि फुफी*-संज्ञा स्त्री० दे. "फूफी"। लीन्हें मोहन बच्चन कुरे। सूरदास स्वामी की महिमा टारी फुफुनी-संज्ञा स्त्री० दे० "फुफैदी"। नाहिं टरे।-सूर । (५) पूरा उत्तरना । सत्य ठहरना । फुफू*-िसंज्ञा स्त्री० दे० "फूफी"। ठीक निकलना । जैसा सोचा समझा या कहा गया था फुफेरा-वि० [हिं० फूफा+रा ] [स्त्री० फुफेर। फूफा से उत्पन्न । वैसा ही होना । उ०-फुरी तुम्हारी बात कही जो मो सों जैसे, फुफेरा भाई, फुफेरी बहिन । रही कन्हाई।-सूर । (१) प्रभाव उत्पन्न करना । असर फुरी-वि० [हिं० फुरना] सत्य । सच्चा । उ०—(क) वह संदेस फुर । करना । लगना । उ०—(क) फुरेन यंत्र मंत्र नहिं लाग मानि के लीन्हो शीश चढ़ाय ।संतो है संतोप सुख रहहु तो चले गुणी गुण हारे। प्रेम प्रीति की व्यथा तप्त तनु सो हृदय जुड़ाय ।-कबीर। (ख) सुदिन सुमंगल-दायकु सोई।। मोहिं डारति मारे।-सूर । (ख) यंत्र न फुरत मंत्र तोर कहा फुर जेहि दिन होई। तुलसी। नहि लागत प्रीति सिरनी जाति ।-सूर । (७) सफल संज्ञा स्त्री० [ अनु० ] उबने में परों का शब्द । पंख फर होना । सोचा हुआ परिणाम उत्पन्न करना । उ.-पुरै फदाने की आवाज़ । जैसे,---चिड़िया फुर से उब गई। न कछु उद्योग जहँ उपजै अति मन सोध ।-पाकर।