पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२६२

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भागनेय x लिये दौड़कर निकल जाना। पीछा छुड़ाने के लिये जल्दी भागहार-सा पुं० [सं०] गणित में किसी राशि को कुछ निश्रित जल्दी चल जाना । चटपट दूर हो जाना । पलायन करना। अंशों में विभक्त करने की क्रिया । भाग । तकसीम । जैसे,--महल्लेघालों की आवाज़ सुनते ही टाकू भाग गए। भागार्ह-वि० [सं०] जो भाग देने के योग्य हो। विभक्त करने संयांकि०-जाना ।-निकलना ।—पड़ना। के योग्य । महा०-सिर पर पैर रखकर भागना बहुत तेजी सभागना। भागासुर-संशा पुं० [सं० ) पुराणानुसार एक असुर का नाम । जल्दी जल्दी चल जाना। भागिक-संज्ञा पुं० [सं० वह ऋण जो व्याज पर दिया जाय । (२) टल जाना । हट जाना । जैसे,—अब भागते क्यों हो, सूद कर दिया हुआ कर्ज। ज़रा सामने बैठकर बात करो। भागिनेय-संज्ञा पुं० [सं०] | मा० भागिनेया । बहिन का सका। संयो०कि.--जाना। भानजा। (३) कोई काम करने से बचना । पीछा छुपाना । मिद भागी-संशा पुं० [सं० भागिन् ] (1) हिस्सेदार । शरीक । साँभी। छुड़ाना । जैसे,—(क) आप उनके सामने जाने से सदा (२) अधिकारी। हक़दार । (३) शिव । भागते हैं। (ख) मैं ऐग कामों से बहुत भागता हूँ। भागीरथ-संज्ञा पुं० दे. "भगीरथ" । उ०—भागीरथ जब बहु भागनेय-संज्ञा पुं० [सं०] बहिन का बेटा । भानजा । __ तप कियो। तय गंगा जू दर्शन दिया।-सूर।। भागफल-समा पु० [सं०] वह संख्या जो भाज्य को भाजक भागीरथी-संक्षा नी• [सं०] (1) गंगा नदी । जालवी । (कहते में भाग देने पर प्राप्त हो । लब्धि । जैसे,—यदि १६ है कि राजा भर्ग:रथ ही इस लोक में गंगा की लाए थे, को ४ से भाग दें। ४) १६ (४, सो यहाँ ४ भागफल इन्सी लिये उसका यह नाम पड़ा।) (२) गंगा की एक होगा। शाखा का नाम जो बंगाल में है। संगा पु० गढ़वाल के पास की हिमालय की एक चोटी का नाम । भागुरि-मा पु० [सं०] सांख्य के भाष्यकर्ता एक ऋषि का नाम। भागरा-सं. पुं० [ देश. ] एक संकर राग जो किमी किसी के भागू-सं: पु० [हिं० भागना+ऊ (प्रत्य०)] वह जो भाग गया मत से श्रीराग का पुत्र माना जाता है। हो । भगोड़ा। भागवंता-वि० [सं० भाग्यवान् ] जिसका भाग्य बहुत अच्छा भाग्य-मंशा ए० सं० J(1) वह अवश्यंभावी देवी विधान जिसके हो। खुश-किम्मत । भाग्यवान् । अनुसार प्रत्येक पदार्थ और विशेषतः मनुष्य के पत्र कार्य- भागवत-संक्षा पुं० [10] (1) अटारह पुराणों में से एक जिसमें १२ उन्ननि, अवनति, नाश आदि-पहले ही में निश्चित रहने स्कंध, ३१२ अध्याय और १८००० श्लोक हैं । इसमें अधि है और जिससे अन्यथा और कुछ हो ही नहींग्यकता । पदार्थों कांश कृष्ण-संबंधी प्रेम और भक्ति-रस की कथाएँ हैं और और मनुष्यों आदि के संबंध में पहले ही मे निश्चित और यह वेदांत का तिलक स्वरूप माना जाता है। वेदांत शास्त्र अनिवार्य व्यवस्था या क्रम । नकदीर । किस्मत । नतीय । में ब्रह्म के संबंध में जिन गूद बातों का उल्लेख है, उनमें विशेष-भाग्य का सिद्धांत प्रायः सभी देशों और जातियों में में बहुतों की इसमें सरल व्याख्या मिलती है। साधारणतः किमी न किसी रूप में माना जाता है। हमारे शास्त्रकारों हिंदुओं में इस ग्रंथ का अन्यान्य पुराणों की अपेक्षा विशेष का मत है कि हम लोग संसार में आकर जितने असळे या आदर है और वैष्णवों के लिये तो यह प्रधान धर्मग्रंथ है। बुरे कर्म करते हैं, उन सबका कुछ न कुछ संस्कार हमारी वे इसे महापुराण मानते हैं। पर शाक्त लोग देवी भागवत आत्मा पर पड़ता है और आगे चलकर हम उन्हीं संस्कारों को ही भागवत कहते और महापुराण मानते हैं और इसे का फल मिलता है। यही संस्कार भाग्य या कर्म कहलाने उपपुराण कहते हैं। श्रीमद्भागवत । (२) देवी भागवत । हैं और हमें सुख या दु:स्व देते हैं। एक जन्म में जो शुभ (३) भगवद्भक्त । हरिभक्त । ईश्वर का भक्त । (४) १३ या अशुभ कृत्य किए जाते हैं, उनमें से कुछ का फल उसी मात्राओं के एक छंद का नाम । जन्म में और कुछ का जन्मांतर में भोगना पड़ता है। इसी वि. भगवत-संबंधी। विचार से हमारे यहाँ भाग्य के चार विभाग किए गए है- भागवती-संज्ञा स्त्री० [सं.] वैष्णयों की गले में पहनने की गोल संचित, प्रारब्ध, क्रियमाण और भावी । प्रायः लोगों का दानों की एक प्रकार की कंठी । यही विश्वास रहता है कि संसार में जो कुछ होता है, वह भागवान-वि० दे० "भाग्यवान्"। सदा भाग्य से ही होता है और उस पर मनुष्य का कोई भागसिद्ध-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का हेत्वाभास । अधिकार नहीं होता। साधारणतः शरीर में भाग्य का स्थान भागहर-वि० [सं०] भाग या अंश लेनेवाला । हिस्सेदार। ललाट माना जाता है।