पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भाग्यभाव भाठी पर्या-देव । दिष्ट । भागधेय । नियति । विधि। प्राक्तन वि. विभाग करने के योग्य । कर्म । भवितव्यता । अदृष्ट । भाट-संज्ञा पु० [सं० भट्ट ] [ बा. भाटिन ] (1) राजाओं का यश यो०-भाग्यचक्र | भाग्यबल। भाग्यवान् । भाग्यशाली । वर्णन करनेवाला कवि । चारण । यदी। उ०-सुभग द्वार भाग्यहीन । भाग्योदय । आदि। सब कुलिस क गटा। भूप भीर नट मागध भाटा।- मुहा०-दे० "क्रिस्मत" के मुहा०। तुलसी । (२) एक जाति का नाम । इस जाति के लोग (२) उत्तर फलानी नक्षत्र । राजाओं के यश का वर्णन और कविता करते हैं। यह वि. जो भाग करने के योग्य हो। हिस्पा करने के लायक। लोग ब्राह्मण के अंतर्गत माने और दौंधी आदि के नाम से भागाह। पुकारे जाते हैं। इस जाति की अनेक शाग्वाएँ उत्तरीय भाग्यभाव-संज्ञा पु० [सं० | जन्मकुंडली में जम-लन मे नयाँ स्थान भारत में बंगाल से पंजाब नक फैली हुई है। उ०-चली जहों से मनुष्य के भाग्य के शुभाशुभका विचार किया जाता है। लोहारिन बाँकी नैना भाटिन 'चली मधुर अति बैना - भाचक्र-संज्ञा पु० [सं०] क्रांतिवृत्त । जायसी। (३) .खुशामद करनेवाला पुरुष । . खुशामदी । भाजक-वि० [सं०] विभाग करनेवाला । बाँटनेवाला। (४) राजकृत। संशा पु. वह अंक जिसमे किसी राशि को भाग दिया जाय। संज्ञा पुं० [सं०] भाड़ा । विभाजक। (गणित) संज्ञा स्त्री० [हि. भाठ] (१) वह भूमि जो नदी के दो भाजकांश-संशा पु० [सं०] वह संख्या जिससे किसी राशि को ! करारों के बीच में हो। पेटा । (२) बहाव की वह मिट्टी जो भाग देने पर शेष कुछ भी न बचे । गुणनीयक । नदी का बहाव उतरने पर उसके किनारों पर की भूमि पर भाजन-संज्ञा पु० [सं०] (1) बरतन । (२) आधार । (३) आवक वा कार में जमती है। (३) नदी का किनारा । (४) नदी नाम की तौल। (४) योग्य । पात्र । जैसे, विश्वास का बहाव । वह रुव जिधर को नदी बहकर दूसरे बड़े भाजन । उ०-लखन कहा जसभाजन लोई। नाथ कृपा जलाशय में गिरती है । उतार । चढ़ाव का उलटा । तव जामर होई ।-तुलसी।। भाटक-संज्ञा पुं० [सं०] भावा। भाजनता-संज्ञा स्त्री० [सं०] भाजन होने का भाव। पात्रता। भाटा-संज्ञा पुं० [हिं० भाट (१)पानी का चढ़ाव की ओर से योग्यता। उतार की ओर जाना । चढ़ाव का उतरना । (२) समुद्र के भाजना-कि. अ. | सं० जना वजन पु० हि भजना । चढ़ाव का उतरना । ज्वार का उल्टा । दे. "ज्वारभाटा"। दौड़कर किसी स्थान में दृत्परे स्थान का निकल जाना। (३) पथरीली भूमि । भागना । उ०-(क) शूरा के मैदान में कायर का क्या भाटिया-संशा पु० [सं० भट्ट ] एक जानि जो रात में रहती काम । कायर भाजै पीठिदै शूर कर संग्राम ।-कबीर। है। इस जाति के लोग अपने को अत्रियों के अंतर्गत (ख) आवत देखि अधिक रख बाजी । चलेउ बराह मस्त मानते हैं। गति भाजी।–तुलम । (ग) और मल मारे शल तो भायौल-संशा पुं० [हि. भट ] भाट का काम । भई। यश- शल बहुत गये यव भाज । मल्ल युन्छ हरि करि गोग्न सों , कीर्तन। उ०-फहूँ भाट भाट्या करें मान पावै । कहूँ लख फूले प्रजराज ।--सूर । (घ) भाल लाल बेंदी लन लोलिनी बेदिनी गीत गाउँ ।-केशव । आखत रहे विराजि । दु कला कज में बनी मनौं राह भय भाठा-शानी [हिं० भाठना वा भरना ] (१) वह मिट्टी जो नदी भाजि ।-बिहारी। अपने पाथ चढ़ाव में बहाकर लाती है और उतार के समय भाजिन-वि० [सं०] (1) किण्ठको दसरी संख्या से भाग दिया कछार में ले जाती है। यह मिट्टी तह के रूप में भूमि पर गया हो। (२) अलग किया हुआ । विभक्त। जम जाती है और स्वाद का काम देती है। (२) दे. "भार। भाजी-संज्ञा स्त्री० [सं० |(1) मांड । पं.च । (२) तरकारी, साग (१) (३)"। (३) धारा । बहाव । आदि। उ०—(क) तुम तो तीनदीक के ठाकर तुमते कहा भाटा-संज्ञा पुं. हि. भाठ] (1) दे० "भाया"। (२) दुराश्य । हम नो प्रेम प्रति के गाहक भाजी शाक चम्बा- गड्ढा। इय।-सूर । (ख) मीठे तेल चना की भाजा । एक मनी भाठी-संशा श्री [हिं० भाठा ] पानी का उतार । भाठा । दैमोहिमानी। -सूर । (३) मेथी।

  • संज्ञा स्त्री० [सं० भत्री (1) भट्ठी। उ०-भवन

मंशा पु० [सं० भाजिन् ] *वक । भृत्य । नौकर। मोहि भाठी सम लागत मरति सोच ही सोचन । ऐसी गति भाज्य-शा पुं० [सं०] वह अंक जिसे भाजक अंक से भाग मेरी तुम आगे करत कहा जिय दोचन।-सूर (२) वह दिया जाता है। स्थान उहाँ मय पुलाया जाता है । भट्ट। उ०-कविरा