पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भाड़ भाथी भाठी प्रेम की, बहुतक बैठे आय । सिर सौपे या पाचही है। यह दृश्यकान्य है। (२) व्याज । मिग्य । (३) ज्ञान । और पैपिया न जाय । कबीर । बोध । भार-संज्ञा पुं० [सं० भ्राष्ट-पा० भट्टो ] भवभूमों की भट्टी जिसमें भाणिका-संज्ञा स्त्री० [सं०] एक अंक में समाप्त होनेवाला हास्य वे अनाज भनने के लिये बालू गरम करते हैं। यह एक रख-प्रधान दृश्य काव्य । भाण। छोटी कोटरी के आकार का होता है जिसमें एक द्वार होता ' भात-संशा पुं० [सं० भक्त पा० भत्त ] (१) पानी में उबाला हुआ है और जिसकी छत पर बहुत से मिट्टी के बर्तन अपर को घावल । पकाया हुआ चाबल । उ०—(क) अवधू वो मुंह करके जड़े होते हैं। इसकी दीवार हाथ सवा हाय तनुरावल राता । नाचे बाजन बाज बराता । मौर के माथे ऊँची होती है। इसके द्वार से ईधन डाला जाता है जिससे दूलह दीन्हों अकथा जोरि कहाता । मडये क धारन समधी आग जलती है। आग की गर्मी से बालू लाल होता है जिसे ! दीन्हों पुत्र बहावल माता। दुलहिन लीपि चौक बैठाये निरभय अला निकालकर दूसरे बर्तन में दानों के साथ रखकर पद परभाता । भातहि उलटि बरातहि स्वायो भली बनी भूनते हैं। दो तीन बार इस प्रकार गरम वाटू डालने और कुशलाता ।-कबीर । (ख) पहिले भात परोसे आना । जनहु चलाने से दाने खिल जाते हैं। सुबास कपूर बसाना । (ग) नंद बुलावत है गोपाल । मुहा०-भाव झोंकना=(१) भाड़ में ईधन झकना । भाड़ में आवहु बेगि बलैया लेही सुंदर नैन बिसाल । परमंड थार कूड़ा फेंकना । भाड़ गरम करना। (२) तुच्छ काम करना । धरेउ मग चितवत बेगि चलो तुम लाल । भात सिरात तात नीच वृत्ति धारण करना । नीच काम करना । अयोग्य काम दुख पायत क्यों न चलो ततकाल ।—सूर । (२) विवाह करना । (३) व्यर्थ समय गंवाना । जैसे,-बारह बरस दिल्ली : की एक रूम । यह विवाह के दूसरे वा नीसरे दिन होती में रहे, भाव झोंकते रहे। भाड़ में झोंकना वा दालना है। इसमें समधी को भात खाने के लिये कन्या के घर (१) आग मे डालना । चूल्हे में डालना । जलाना । (२) बुलाया जाता और उसे भात खिलाया जाता है। भात खाने फेकना । नष्ट करना । (३) जाने देना । त्यागना । भार में पड़े के लिये उसे कुछ द्रव्य आदि भी भेंट किया जाता है। वा जाय-आग लगे । नष्ट हो । (उपेक्षा) इसमें दोनों समधी मांडव में चौक पर बैठकर भात खाते हैं। भाड़ा-संशा पु० [सं० भाट ] किराया। संज्ञा पुं० [सं०] (1) प्रभात । सवरा । (२) दीप्ति। प्रकाश । मुहा०-भाड़े का टट्ट. (१) थोड़े दिन तक रहनेवाला । जो : भाता-संशा पु० [सं० भक्त- भत्त ] उपज का वह भाग जो हलवाहे स्थायी न हो। क्षणिक । (२) जिग्गका सदा मरम्मत हुआ करे को राशि में से खलिहान में मिलता है। (पूर्व काल में वा जिस पर लाभ से व्यय अधिक पड़ता है।। जब मासिक वेतन या दैनिक मजूरी देने की प्रथा नहीं थी, संपुं० एक घाम जो प्रायः हाथ भर ऊँची होती और , तब हल जोतनेवाले को अन्न की उपज का छठा भाग दिया निर्बल भूमि में उपजती है । यह चारे के काम आती है। । जाता था; और इसके बदले में वह वर्ष भर सपरिवार खेती संज्ञा पुं० [सं० भरण] वह दिशा जिसओर को वायु बहती हो। के सब काम काज करता था। यह प्रथा अब भी नेपाल मुहा०-भाहे पड़नामजिधर वायु जाता हो, उधर नाव को की तराई में कहीं कहीं है।) चलाना । नाव को वायु के सहारे ल जाना। भाड़े फेरना-- : भाति-संज्ञा स्त्री० [सं० ] शोभा । कांति । उ०—मनोहर है जिधर हवा का रुख हो, उधर नाव का मुंह फरना। नैनन की भाति । मानहुँ दूरि करत बल अपने शरद कमल भाण-संज्ञा पुं० [सं०] (१) नाट्य शास्त्रानुसार एक प्रकार का ! की भाति । सूर । रूपक जो नाटकादि दस रूपकों के अंतर्गत है। यह एक संशा स्त्री० दे० "भाँति"। अंक का होता है और इसमें हास्य रस की प्रधानता होती भातु-संजा पु० [सं०] सूर्य । है। इसका नायक कोई निपुण, पंडित वा अन्य चार व्यक्ति भाथा-संज्ञा पुं० म० भम्ब(-५०० म.4. ] (1) चमई की बनी होता है। इसमें नट आकाश की ओर देखकर आप ही हुई लंबी थैली जिसमें तीर भरकर तीर चलानेवालं. पीठ आप सारी कहानी उक्ति प्रत्युक्ति के रूप में कहता जाता पर वा कटि में बांधते थे । तरकश । तूणीर । उ०—(क) है, मानो वह किपी से बात कर रहा हो। वह श्रीच बीच पंात बावन परिकर कटि भाया । चारु चाप यर योहत में हँसता जाता और क्रोधादि करता जाता है। इसमें धूर्त : हाया।-तुलना । (ब) नृा चल्यो धान भरि भाष में । के चरित्र का अनेक अवस्थाओं सहित वर्णन होता है। बीच । लिए सरासन हाय में। गोपाल। (२) बड़ी भाभी। बीच में कहीं कहीं संगीत भी होता है। इसमें शौर्य और । भाथी-संज्ञा स्त्री०सं०] भत्र-पा० माथी (1) चमड़े की धौंकनी सौभाग्य द्वारा श्रृंगार रस भी सूचित होता है। संस्कृत जिसे लगाकर लोहार भट्टी की आग सुलगाते हैं। धौंकनी। भाणों में कोशिकी वृत्ति द्वारा कथा का वर्णन किया जाता! ( यह स्महे की होती है जो फैलती और सिकुड़ती है। ६४०