पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२६८

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मायण २५६१ भारतवर्ष पिहले बैठा छाय। चाँध यहोरे सिर ध्रुनै यह वाही को पर्या०-असबरग। प्राह्मणी । पा । भुंगना । अंगार वल्लरी। भाय । —कबीर। ब्राह्मणयष्टी । कजी। दूर्वा । मंशा पुं० [ सं . भाव ] (1) अंत:करण को वृत्ति। भाव। भार-मंशा पु० [सं०] (9) एक परिमाण जो बीस पर का उ०—(क) भाय कुभाय अनग्न आलाप हु। नाम जपन होता है। (२) विष्णु । (३) बोझ । मंगल दिमि दसह ।--तुलदी। (ख) गोविंद प्रीति पवन : क्रि० प्र०-उठाना। ढोना । -रखना । -लादना । की मानत । जेहि जेहि भाय करी जिन मेवा अंतरगत की (४) वह बोल जिसे यहँगी के दोनों पलों पर रखकर कंधे जानन ।-सूर । (ग) चितवनि भोरे भाय की गोरे मुंह पर उठाकर ले जाते हैं। उ०-मीन पीन पाठीन पुराना मुम्पकानि । लगनि लटक ली गरे चित खटकति नित भरि भरि भार कहाँरन आना । —तुलसी । आनि ।- बिहारी । (२) परिमाण । उ.-भक्ति द्वार है: क्रि० प्र०----उठाना ।-काँधना ।-ना।-भरना। याँकरा राई दमयं भाय । मन तो मयगल है रयो कैसे होय । (4) सँभाल । रक्षा । उ०—पर घर गोपनते कहेउ कर भार पहाय।-कबीर । (३) दर । भाव । उ.-भले बुरे जहूँ जुराबहु । सूर नृपति के द्वार पर उठि प्रात घलाबहु ।--- एक से तहाँ न बग्निये जाय । क्यों अन्यायपुर में बिके म्बर मूर । (६) किपी कर्तव्य के पालन का उत्तरदायित्व । गुर एकै भाय। लट। (४) भाँति । दंग। उ.-(क) मुहा०—किसी का भार उठाना :किमी का उत्तरदायित्व अपने रवि पिय बिनती रिस भरी चितवै चंचल भाय । तय खंजन : ऊपर रेलना । भार उतरनाकर्तव्य के ऋण मुक्त है:ना । से हगन में लाली अति धि छाय !--मतिराम । (ग्य) भार उतारना=(१) कर्तव्य पूरा करना । (२) यो र मोहत अंग सुभाय के भूषण, भीर के भाय लसे लट छूट। किमी काम को पूरा करना । बला टालना । अंगार सालना। -नाय । (ग) ममि लग्वि जात विदित कहो जाय कमल भार देना वा डालना बांश रखना । मोझ डालना। 30-- कुम्हिलाय । यह सग्नि कुम्हिलानो अहो कमलहि लखि केहि मंजुल मंजरी पै हो मलिंद बिचारि के भार सम्हारि के भाय । , दीजिये ।-प्रताप । भायप-संज्ञा पुं० [हिं० भाई+प=पन (प्रत्य॰)] भाईपन । भ्रान (७) आश्रय । सहारा । बल। उ०—दोहूँ म्यंभ टेक सब भाव । भाईचारा । उ.--भायप भगति भरत आचरन् । मही। दुहुँ के भार सृष्टि सम रही।--जायपी। कहत सुनत दुख दृपन-हरन् ।-तुलसी ।

  • संभा पुं० दे० "भाद" |

भाया-वि० [हि, भाना=चना } जो अच्छा जान पड़े। प्रिय। भारक-संज्ञा पुं० [सं०] भार नाम की तौल । प्यारा । उ०--(क) शुक्र ताहि पदि मंत्र जियायो । भयो भारकी-संशश ना । स० ] दाई । धाई। तासु तनया को भायो ।—सूर । (ख) हमतो इतनेही सच- । भारत-संशा पुं० [सं०] (१) महाभारत का पूर्व रूप वा मूल पायो । सुदर श्याम कमल दल लोचन बहुरो दरश देखायो। .. जो २४००० श्लोकों का था। वि० दे. “महाभारन"। कहा भयो जो लोग कहत हैं कान्ह द्वारिका छायो। सुनि . (२) एक वर्ष का नाम । यह पुराणानुसार जंबूढीप के नौ यह दशा बिरही लोगन की उठि आतुर होइधायो । रजक वर्षों के अंतर्गत है । वि० दे० "भारतवर्ष"। (३) नट । धेनु गज केस मारि के किया आपनी भायो । महाराज होइ (४) अग्नि । (५) भरत के गोत्र में उत्पन्न पुरुष । (६) मातु पिता मिलि तऊ न व्रज बिसरायो ।-सूर। लराया -सूर। लंबा चौड़ा विवरण । कथा । उ०-गोकुल के कुल के गली भारंगी-मंशात्री ! सं० ] एक प्रकार का पौधा जो मनुष्य के . के गोय गायन के जौ लगि कछु को कटू भारत भने नहीं।- बराबर ऊँचा होता है । इसकी पत्तियाँ महए की पत्तियों से । पद्माकर। मिलती हुई, गुदार और नरम होती है और लोग उनकी भारतखंड-संज्ञा पुं. दे. “भारतवर्ष"। पाग बनाकर खाने हैं। इसका फूल सफेद होता है। भारतवर्ष-संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार जंबूद्वीप के अंतर्गत नी इपकी जद, डंठल, पत्ती और फल सब औषध के काम वर्षों वा खंडों में से एक जो हिमालय के दक्षिण ओर आते हैं। इसके फूल को गुल असबर्ग कहते हैं। इसकी गंगोतरी से लेकर कन्याकुमारी तक और सिंधु नदी से पत्तियों का प्रयोग ज्वर, दाह, हिचकी और निदोष में होता . ब्रह्मपुत्र तक फैला हुआ है । आर्यावर्त्त । हिदुस्तान । है। बैद्यक में इसके मूल का गुण गर्म, रुचिकर, विशेष-ब्रह्मपुराण में इसे भारतद्वीप लिखा है और अंग, यव, दीपन लिखा है और स्वाद कडुवा, कसैला, चरपरा मलय, शंख, कुश और वाराह आदि द्वीपों को इसका उप- और रुस्खा बतलाया है जिसका प्रयोग ज्वर, श्वास, द्वीप लिखा है जिन्हें अब अनाम, जावा, मलाया, आस्ट्रेलिया स्वास्पी और गुरुमादि में होता है। बम्हनेटरी। मुंगजा । आदि कहते हैं और जो भारतीय द्वीप पुंज के अंतर्गत माने असदरम। जाते हैं। ब्रह्मांरपुराण में इसके इंद्रद्वीप, कशेरु, ताम्रपर्ण, ६४१