पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भावर भाव हमीर मतमता । जो तस करंसि तोर भावता ।- जायसी। भावर-संज्ञा पुं० देश० ] एक प्रकार की धाय जिसमे कागज़ । बनता है। संशा स्त्री० दे. "भाँवर"। भाव-संज्ञा पुं० [सं०] (1) मसा । अस्तित्व होना । अभाव का उलटा । (२) मन में उत्पक्ष होनेवाला विकार या प्रवृत्ति ।। विचार । खयाल । जैसे,—(क) इस समय मेरे मन में | अनेक प्रकार के.भाव उठ रहे हैं। (ख) उस समय आपके मन का भाव आपके चेहरे पर मलक रहा था। (३) अभि- प्राय । तात्पर्य । मतलब । जैसे,—इस पद का भाव समझ में नहीं आता। (४) मुख की आकृति या चेष्टा । । (५) आत्मा। (६) जन्म । (७) चिप्स । (८) पदार्थ । चीज़ । (९) क्रिया । कृत्य । (१०) विभूति । (81) . विद्वान । वखित । (१२) जंतु। जानवर । (१३) रति आदि कीवा । विषय । (१४) अच्छी तरह देखना । पालोचन । (१५) प्रेम । मुहब्बत। उ०-रामहि चितब भाव जेहि मीया । सो सनेह मुख नहि कथनीया।-तुलसी । (१६) किमी धातु का अर्थ । (१७) योनि । (14) उपदेश । (१९) संसार । जगत् । दुनिया । (२०) जन्म समय का नक्षत्र । (२१) कल्पना । उ-जैसे भाव न संभव तैये करत प्रकास होत असंभावित तहाँ उपमा केशवदास ।- केशव । (२२) प्रकृति । स्वभाव । मिज़ाज । (२३) अंत: करण में छिपी हुई कोई गृह इच्छा । (२४) इंग। तरीका । उ.--देम्वा चाँद सूर्य जय माजा । सहसहि भाव मदन तन गाजा ।-जायसी । (२५) प्रकार । तरह । उ०—गुरू गरू में भेद है, गुरू गृह में भाव |--कबीर। (२६) दगा । अवस्था । हालत । (२७) भावना । (२८) विश्वाय । भरोका। उ- अभू लगि जाबों घर कैसे कैसे आवै बर बोली हरि जानिए न भाव पै न आयो है ।—पियादास । (२९) आदर ) प्रतिष्ठा । इज़्ज़त 1 उ.-कहा भयो जो सिर धन्यो तुम्हें कान्ह करि भाव। पंवा बिनु कष्ट और तुम यहाँ न पैहो नाव ।-रसनिधि। (३०) किसी पदार्थ का धर्म । गुण । (३१) उद्देश्य । (३२) किसी चीज़ को बिक्री आदि का हिसाब । दर। निल। मुहा०-भाव उतरना या गिरना=किसी चीज का दाम घट . जाना । भाव चढ़ना=दाम बढ़ जाना । दर तेज होना। (३३) ईश्वर, देवता आदि के प्रति होनेवाली श्रद्धा या भक्ति । उ.-भाव सहित खोजइ जो मानी। पाय भक्ति मम सब सुख खानी । -तुलसी। (३४) साठ संवत्सरों में से आठवा संवरसर । (३५) फलित ज्योतिष में ग्रहों की शयन, उपवेशन, प्रकाशन, गमन आदि बारह पेष्टाओं में : ६४२ से कोई चेटा या दंग जिसका ध्यान जन्मकुंडली का विचार करने के समय रखा जाता है और जिन्यके आधार पर फला- फल निर्भर करता है। विशेष-किमी किमी के मत से दस, दीन, सुस्थ, मुदित आदि नौ और किमी किम्मी के त मे दम भात्र भी हैं। (३५) युवती स्त्रियों के २८ प्रकार के स्वभावज अलंकारों के अंतर्गत तीन प्रकार के अंगज अलंकारों में ये पहला । नायक आदि को देखने के कारण अथवा और किसी प्रकार नायिका के मन में उत्पन्न होनेवाला विकार ।। विशेष-साहित्यकारों ने इसके स्थायी, व्यभिचारी और साविक ये तीन भेद किए हैं और रति, हाम, शोक, कोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा और विस्मय का स्थायी भाव के अंतर्गत निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, भ्रम, आलस्य, दैन्य, चिंता, मोह, ति, बड़ा, चपलता, हर्ष, आवंग, जबत्ता, गर्व, विषाद, उन्सुकता, निद्रा, अपस्मार, स्नान, विरोध, अमर्ष, उग्रता, व्याधि, उन्माद, मरण, भाय और वितर्क को व्यभिचारी भाव के अंतर्गन तथा स्वेद, स्तंभ, रोमांच, स्वरभंग, वेपथु, वैवर्ण्य, अश्रु और प्रलय का सात्विक भाव के अंतर्गत रग्बा है। (३६) संगीत का पाँचवाँ अंग जिसमें प्रेमी या प्रेमिका के संयोग अथवा वियोग मे होनेवाला सुख अथवा दुःव या इसी प्रकार का और कोई अनुभव शारीरिक चेष्टा से प्रत्यक्ष करके दिखाया जाता है। गीत का अभिप्राय प्रत्यक्ष कराने के लिये उसके विषय के अनुसार शरीर या अंगों का संचा. सन । स्वर, नेन, मुख तथा अंगों की आकृति में आवश्य- कतानुसार परिवर्तन करके यह अनुभव प्रत्यक्ष कराया जाता है। जैसे, प्रसन्नता, व्याकुलना, प्रतीक्षा, उद्वेग, आकांक्षा आदि का भाव बताना। क्रि० प्र०-बताना। मुहा०-भाव बताना का काम न करणे केवल हाथ पैर म:- काना । व्यर्थ पर नखरे के साथ पैर हिलानः । भात्र देना=आकृति आदि में अथवा कअग मचालित करके मन का भाव प्रकट करना । उ.---इशाम को भाव दै गई राधा। नारि नागरि न काहु लग्यो कोऊ नहीं कान्ह कटु करत है बहुत अनुराधा ।-सूर । (३७) नाज़ । नखरा । चोचला। (३८) वह पदार्थ जो जन्म लेता हो, रहता हो, बड़ता हो, क्षीण होता हो, परि. णामशील हो और नष्ट होता हो।छः भावों से युक्त पदार्थ । (सांक्य ) (३९) बुद्धि का वह गुण जिसमे धर्म और अधर्म, ज्ञान और अशान आदि का पता चलता है। (४०) वैशेषिक के अनुसार द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय ये छः पदार्थ जिनका अम्निाव होता