पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भावनामय शरीर मादिक निवाहनो है। (ख) गुन अवगुन जानत सच कोई । जो की अपेक्षा नहीं होती और वह सदा एकवचन पुलिंग जेहि भाव नीक तेहि सोई। तुलसी । (ग) जग भल होती है । भावप्रधान क्रिया । जैसे,-मुझर योला नहीं कहहिं भाव यब काहू। हठ कीन्हे अंतहु उर वाहू । जाना । उपसे खाया नहीं जाता। तुलदी। भावविकार-संज्ञा पुं० [सं० ] यास्क के अनुसार जन्म, अम्निल, वि० [हिं० भावना अच्छा लगना ] जो अच्छा लगे। परिणाम, वर्धन, क्षय और नाशय छः विकार जिनके प्रिय । प्यारा। अधीन जीव तब तक रहता है, जब तक उसे शान भावनामय शरीर-संशा पुं० [सं०] सांस्य के अनुसार एक नहीं होता। प्रकार का शरीर जो मनुष्य मृत्यु से कुछ ही पहले धारण ! भारवत्त-संशा पु० [सं०] ब्रह्मा । करता है और जो उसके जन्म भर के किए हुए पापों और भावव्यंजक-वि० [सं०] जिससे अच्छा वा अच्छी तरह भाव पुण्यों के अनुरूप होता है। जब आत्मा इस शरीर में पहुँच प्रकट होता हो । भाव प्रकट करनेवाला । जाती है, तभी मृत्यु होती है। भावशबलता-संशा स्त्री० [सं० ] एक प्रकार का अलंकार जिसमें भावनि* -संज्ञा स्त्री० [हिं० माना या भावना अच्छा लगना ] जो कई भावों की संधि होती है। कुछ जी में आवे । इच्छानुसार बात या काम । उ.- भावमंधि-संशा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का अलंकार जिसमें दो जब जमवृत आइ घेरत हैं करत आपनी भावनि । विरुद्ध भावों की संधि का वर्णन होता है । जैसे,—दुहुँ काष्ठनिहा। समाज हिय हर्ष-विपातू । यहाँ हर्ष और विषाद की संधि भावनीय-वि० [सं० ] भावना करने योग्य । चिंता या विचार है। (साधारणत: यह अलंकार नहीं माना जाता; क्योंकि करने योग्य। इन्पका विषय रस से संबंध रखता है; और अलंकार में रस भावपरिग्रह-संशा पु० [सं०] वास्तव में धन का संग्रह न करना, पृथक है।) पर धन के संग्रह की मन में अभिलाषा रखना । ( जैन ) : भावसत्य-वि० सं० ऐसा सत्य जो ध्रुव न होने पर भी भाव भावप्रधान-संज्ञा पुं० दे० "भाववाच्य"। की दृष्टि से सत्य हो । जैसे,—यद्यपि तोते कई रंग के होने भावभक्ति-संना मी० [सं० भाव+भक्ति ] (1) भक्ति-भाव । (२) हैं, तथापि साधारणत: व हरे कहे जाते है। अत: तोनों आदर । सरकार । उ०-नैन मदि करजोरि बोलायो।' को हरा कहना "भाव सत्य" है। (जैन) भावभक्ति सों भोग लगायो।—सूर । भावसबलता-संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का अलंकार जिसमें भाषमन-संज्ञा पुं० [सं०] पुद्गलों के संयोग से उत्पन्न ज्ञान । (जैन) कई एक भावों का एक साथ वर्णन किया जाता है। भावमृषावाद-संज्ञा पुं० [सं०] (1) ऊपर से सूट न बोलना, भावसर्ग-संज्ञा पुं० [सं०] तन्मात्राओं की उत्पत्ति । (मांष्य पर मन में ही बातों की कल्पना करना । (२) शास्त्र के भावहिंसा-संज्ञा स्त्री० [सं०] ऐसी हिस्सा जो केवल भाव में घाम्तविक अर्थ को दवाकर अपना हेतु सिद्ध करने के लिये हो, पर द्रव्य में न हो । कार्यतः हिंसा न करना, पर मन झूठ मूठ नया अर्थ करना । (जैन) में यह इच्छा रखना कि अमुक व्यक्ति का घर जल जाय, भावमैथुन-संज्ञा पुं॰ [सं०] मन में मैथुन का विचार वा कल्पना अमुक व्यक्ति मर जाय। (जैन) करना। (जैन) भावाभाव-संज्ञा पुं० [सं०] (1) भाव और अभाव । होना और भाषय-संज्ञा पुं० [ देश० ] वह व्यक्ति जो धातु की चहर पीटने न होना । (२) उत्पत्ति और लय वा नाश। के समय पासे को सैंडस्से मे पक रहता और उलटता भावाभास-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का अलंकार । भावार्थ-संझा पुं० [सं० ] (1) वह अर्थ वा टीका जिम्पमें मूल भावली-संज्ञा स्त्री० [ देश० ] ज़मींदार और असामी के बीच __का केवल भाव आ जाय, अक्षरशः अनुवाद न हो। (२) उपज की बँटाई। अभिप्राय । तात्ययं । मतलब। भाववाचक-संशा खी० [सं०] व्याकरण में वह संज्ञा जिससे ' भावालंकार-संज्ञा पुं॰ [सं०] एक प्रकार का अलंकार । किसी पदार्थ का भाव, धर्म या गुण आदि सूचित हो। भावाश्रित-संज्ञा पुं० [सं०] (1) वह नृत्य जिसमें अंगों में भाव जैसे, सजनता, लालिमा, ऊँचाई। बताया जाय। (संगीत) (२) संगीत में हस्तक का एक भाववाच्य-संशा पुं० [सं०] व्याकरण में क्रिया का यह रूप भेद । गाने के भाव के अनुसार हाथ उठाना, चुमाना और जिससे यह जाना जाय कि वाक्य का उद्देश उस क्रिया का चलाना। का या कर्म कोई नहीं है, केवल कोई भाव है। इसमें । भाषिक-मेशा पुं० [सं०] (1) वह अनुमान जो अभी हुआ न कर्ता के साथ तृतीया की विभक्ति रहती है। क्रिया को कर्म हो पर होनेवाला हो। भावी अनुमान । (२) वह अल.