पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२८०

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भीड़ २५७३ भीती भीड़-संशा स्त्री० [हि भिन्ना ] (1) एक ही स्थान पर बहुत से संशा पुं० भय । । आदमियों का जमाव । जन-समूह । आदमियों का झुर। भीतर-कि० वि० [१] अंदर । मैं । जैसे,—घर के भीतर, छ । जैसे, ---(क) इस मेले में बहुत भीर होती है। (ख) महीने भर के भीतर, यो रुपए के भनिर । उ.--भरत रेल में बहुत भर थी। मुनिहि मन भीतर भाए । महित समाज राम पर कि०प्र०—करना ।-टगना ।—लगाना ।—होना। आए।-तुलसी। मुहा०-भीइ चीरना जन-समूह को हराकर जान के लिय मार्ग मुहा०-भीनर का कृा चह उपयोगी पदार्थ जिसमें कोई बनाना । भीड़ छंटना-माद के गी को धर उधर है। माना। लाभ न उठः सके । अछी, पर किसी के काम न आ सकने भी न रह चाना। योग्य चीज । उ०.--सूरदास प्रभु तुम बिन जोबन घर (२) संकट । आत्ति । मुसीबत । जैसे,- जब तुम पर कोई भीतर को कृप ।-मूर । भीतर पेठकर देग्वना-तत्व र्भब पड़े, तब मुमय कहना। जाननः । असलियत नाचना । क्रि० प्र०-कटना।-काटना ।—पड़ना । संश पुं० (3) अंत:करण । हृदय । जैग, .. जो बात भीतर भीड़न-संशा स्त्री० [हिं० भीदना । मलने, लगाने या भरने की मे न उठे, वह न करनी चाहिए। क्रिया। मुहा०-भीतर ही भीतर-मन ही मन । हृदय में । भीड़ना-क्रि० स० [हि भिडाना ] (१) मिलाना । लगाना। (२) सनवास । जनानखाना । उ०-अवधनाथ चाहत (२) मलना । उ०—करि गुलाल सों धुधुरित सकल चलन भीतर करहु जनाउ । भये प्रेम यस सचिव सुनि ग्वालिनी ग्वाल । शरी भीड़न के सुमिस गोरी गहे गोपाल। विप्र सभासद राउ ।-तुलस्पी ' -मकर । भीतराग-वि० [हिं० भीतर ] भीतर या जनानखाने में जानेवाला । भीर डक्का-संज्ञा पुं० [हिं० भाड़+ाडका अनु० ] बहुत से आद स्त्रियों में आने जानेवाला । मियों का समूह । भीष-भाद। भीतरि*-अव्य० दे. "भीतर" । भीड़भाड़-संशाम्बी० [हिं० भाइ+भाड अनु.] मनुष्यों का जमाव। भीतरिया-संज्ञा पुं० हिं० भातर+श्या (प्रत्य०) (1) वह जो जन-समूह । भीड़। भीतर रहता हो। (२) वल्लभीय ठाकुरों के वे प्रधान पुजारी भीड़ा -संज्ञा स्त्री० दे० 'भीड़"। आदि जो मंदिर के भीतर मूर्ति के पास रहते है। (सब वि० [हिं० भिना ] संकुचित । तंग। जैसे, भदी गली। लोगों को मंदिर के भीतर जाने का अधिकार नहीं होता।) उ.---महंत जी ने कहा कि स्वामी, गली बहुत भीड़ी है। वि. भीतरवाला । अंदर का। भीतरी। लोगों का आना जाना रुक गया।-श्रद्धाराम। भीतरी-वि० [हिं० भीतर+ई (प्रत्य॰)] (१) भीतरवाला। अंदर भीड़ी-संज्ञा स्त्री० [हिं० भिई। ] भिंडी । रामतरोई। उ०- का । जैसे,-भीतरी कमरा | भीतरी दरवाज़ा । (२) छिपा बनकोरा पिडियाची चीड़ी। स्वीप पिडारू कोमल भीड़ी। हुआ । गुप्त । जैसे,-भीतरी यात । भीतरी पैमनस्य । | भीतरी टाँग-संशा स्त्री० [हिं० भातरा+टॉग ] कुश्ती का एक संशा स्त्री० [हिं० भाइ ] जनसमूह । भीड़। च । जब शत्रु पीठ पर रहता है, तब मौका पाकर भीत-संशा पी० [सं० भित्ति ] (१) भित्तिका । दीवार । खिलाबी भीतर ही सं टाँग मारकर विपक्षी को गिराता मुहा०-भत में दौवना-अपने भामर्थ्य से बाहर अथवा है। इसी को भीतरी टाँग कहते हैं। असंभव कार्य करना । 30---बालि बली स्वरदृषन और अनेक भीति-संशा स्त्री० [सं०] (9) डर । भय । खौफ़ । उ०-वानरेंद्र गिरे जे जे भत में दौरे ।-तुलसी । भीत के बिना चिन तब यो हँसि बोल्यो। भति भेद जिय को सब खोल्यो।- बनाना सिर पैर की रात करना । बिना प्रमाण की बात केशव । (२) कंप। करना । उ०-तात रिस करत भ्राता कहै मारिहौं भति . संशा स्त्री० [सं० भित्ति ] दीवार । बिन चित्र तुम करत रेखा-सूर। भीतिकर-वि० [सं०] भयंकर । भयावना । डरावना। (२) विभाग करनेवाला परदा । (३) घटाई। (४) छत।: भीतिकारी-वि० [सं० ) भयानक । डरावना । भयावना । गच । (५) खंड । टुकड़ा । (६) स्थान । (७) दरार । (6) स्वौफनाक । कोर । कसर । श्रुटि । (९) अवसर । अबकाश । मौका। भीती*-संशा स्त्री० [सं० भित्ति दीवार । उ०—परम प्रेम मय मृदु वि० [सं०] [स्त्री० भीता ] रा हुआ। जिसे भय लगा मसि कीनी । चारु चित्त भीती लिखि लीनी।-तुलसी। हो । उ.--कनक गिरि शुंग चनि देखि मर्कट कटक बदत संज्ञा स्त्री० [सं० भीति ] डर । भय । उ.--चंद्र की दुति गई मंदोदरी परम भीसा ।-सुल.सी । पहैं पीरी भई सकुच नाहीं दई अति हि भीती।---सूर । ६४४