पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२८१

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भिल भीटा उदर-रोग, कुष्ट, बवासीर, संग्रहणी, गुल्म, ज्वर आदि का चलूंगा। (ख) वेतन के साथ भोजन भी मिलेगा। (ग) नाशक माना है। सज़ा के साथ जुरमाना भी होगा। पO०-अरुष्का । शोपहृत् । वहिनामा । वीरतरु । व्रण (२) अधिक । ज़्यादा । विशेष । जैसे,—इस पर समाटा वृत। भूतनाशन । अग्निमुग्वी। भल्ली। शैलबीज । और भी आश्चर्यजनक है। (३) तक । लौं । उ०- मनुष्य वानारि । धनुर्वृक्ष । वीजपादप । दहि । महातीक्ष्णा । 4. कौन कहे, जहाँ तक दृष्टि जाती थी, पशु भी दिखलाई अग्निक । स्फोटहेतु । रक्तरर । न देता था।-अयोध्यासिंह। भिल-संज्ञा पुं० दे० "भील"। भीउँ*-संका पुं० [सं० भीम ] युधिष्ठिर के छोटे भाई, भीमसेन । भिल्लतरु-संज्ञा पुं० [सं० ] लोध । उ.--जैसे जरत लच्छ घर माहस कान्हा भीउँ । जरत भिश्त-सज्ञा स्त्री० [फा० विहित वैकुण्ठ । स्वर्ग। उ.- खंभ तप कान्यो के पुरपारथ जीउँ ।—जायसी । __ अलख अकल जाने नहीं जीव जहन्नम लोय । हरदम हरि भीक-वि० [सं०] रा हुआ। भंत । जान्या नहीं भिश्त कहाँ से होय ।-कबीर । संशा स्त्री० दे० "भीत्र"। भिश्ती-मंशा पुं० [?] मशक द्वारा पानी होनेवाला व्यक्ति । सका। भीख-संशा स्त्री० [सं० भिक्षा ] (9) किसी दरिद्र का दीनता भिषक-संज्ञा पुं० [सं०] वैद्य। दिवाते हुए उदरपूर्ति के लिये कुछ माँगना । भिक्षा । भियप्रिया-संज्ञा स्त्री० [सं० ] गुडुच । क्रि० प्र०—मांगना। भिपज-संश: पु० [सं० ] वैद्य। यौ०-भिखमंगा । भिग्वारी । भिष्टा-संज्ञा पुं० [सं० विष्ठा ] मल । गृ । गलीज़ । (२) वह धन या पदार्थ जो इस प्रकार मांगने पर दिया भिसज-संज्ञा पुं० [सं० भिपज ] वैद्य। (हिं.) जाय । भिक्षा में दी हुई चीज़ । खरात । भिसटा-संशा पु० [ विछ] गू। मल । क्रि० प्र०-देना।—पाना।-मिलना । भिसर-संज्ञा पुं० [ भूसुर ] बाह्मण । (डि.) भीखन-वि० [सं० भाषण ] भयानक । भयंकर । डरावना । भिसिणी-संज्ञा पुं० [स. व्यसनी ] व्यसनी। (f.) उ.-पूरी खनहुँ न सुग्व लखों दुख दै दुखद दिखाइ । भिस्त-संज्ञा स्त्री० दे० "भिश्त" । भीखन भीखन लगत है तीखन तीख बनाइ ।-रामसहाय। भिस्स-संज्ञा स्त्री० [म. विश ] कमल की जा भैंपीड़। भीखम-संज्ञा पुं० [सं० भीम ] राजा शांतनु के पुत्र भीरम भींगना-कि० अ० दे० "भीगना"। पितामह । भीगी-संज्ञा पुं० [सं० भूगी ] (1) भंवरा । अलि । (२) एक वि० भयानक । अराधना । प्रकार का फतिंगा जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि वह किसी भीगना-क्रि० अ० [सं० अभ्यंज ] पानी या और किसी तरल भी कृमि को अपने रूप में ले आता है। पदार्थ के संयोग के कारण तर होना। आई होना । जैसे, भींचना-कि० म० [हिं० खींचना ] (1) खींचना । कसना । वर्षा से कपड़े भीगना। पानी में दवा भीगना । उ०—गरी दबाना । उ०—क्यों तिय भींचि भुजनि मैं पी.। (२) भरत मोरी सारी भीगी, भीगी सुरख चुनरिया।-गीत । भूदना । ढाँपना । बंद करना । ( आँख के लिये ) मुहा०-भीगी बिल्ली होना भय आदि के कारण दर जाना । भीजना*1-कि० अ० [हिं० भागना ] (1) आर्द्र होना । गीला होना । तर होना । भीगना । (२) पुलकित वा गद्गद् हो भीचर-संक्षा पुं० [दि० ] सुभट । वीर । जाना । प्रेम मान हो जाना । (३) लोगों के साथ हेलमेल भीजना-कि० अ० दे० "भीगना"। बढ़ाना। मेल मिलार पैदा करना । (४) स्नान करना। भीट-संभा पुं० [देश॰] (1) द्वएवा ज़मीन । टीलेदार भूमि। नहाना । (५)ममा जाना । घुस जाना । उभरी हुई पृथ्वी । (२) वह ऊँची भूप्ति जहाँ पान की खेती भीट-संशा पु० दे० "भी"। होती है। भीटा । (३) एक प्रकार की तौल जो प्राय: मन भीत-संज्ञा स्त्री० दे० "भीत" । भर के बराबर होती है। भी संज्ञा स्त्री० [सं०] भय । डर । ग्वौफ़ । उ०-सुनत आइ भीटन-संज्ञा स्त्री० दे० "भीटा"। ऋषि कुसहरे नरसिंह मंत्र पढ़ि भय भी के।–तुलमी। भीटा-संश पुं० [देश॰] (1) आस पास की भूमि से कुछ उभरी अव्य० [हिं० ही. ] (1) अवश्य । निश्चय करके । ज़रूर । हुई भूमि । ऊँची या टीलेदार ज़मीन । (२) वह बनाई हुई विशेष-दस अर्थ में इसका प्रयोग किसी एक पदार्थ या । ऊँची और दालुआँ ज़मीन जिस पर पान की खेती होती है मनुष्य के साथ दूपरे पदार्थ या मनुष्य का निश्चयपूर्वक और जो चारों ओर से छाजन या लताओं आदि से की होना सूचित करता है। जैसे,—(क) तुम्हारे साथ मैं भी हुई होती है। कि० दे० 'पान" ।