पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२९८

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भूपग २५८९ भूमिजंबु भूपग-संज्ञा पुं० [सं० भूप ] राजा (हिं.) (२) स्थान । जगह। भूपति-संक्षा पु० [सं०] (१) राजा । (२) हनुमत के मत से यौ०-जन्मभूमि । एक राग जो मेघ राग का पुत्र माना जाता है। (३) बटुक (३) आधार । जड़ । बुनियाद । (४) देश । प्रदेश । प्रांत । जैसे, आर्यभूमि । () योगशास्त्र के अनुसार वे अवस्थाएँ भूपद-संज्ञा पुं० [सं०] वृक्ष । पेड़। जो कम क्रम से योगी को प्राप्त होती है और जिनको पार भूपदी-संज्ञा स्त्री० [सं० ] मल्लिका । चमेली। करके वह पूर्ण योगी होता है । (६) जीभ । (७) क्षेत्र । भूपग-संशा पुं० [सं० भूप ] सूर्य । (डि.) भूमिकंदली-संज्ञा स्त्री० [सं० ] एक प्रकार की लता। भूपलाश-संशा पुं० [सं०] एक प्रकार का वृक्ष । भूमिकप-संज्ञा पुं० [सं०] भूकंप । भृडोल। भूपवित्र-संशा पुं० [सं० ] गोथर । भूमिकदंब-संश पुं० [सं० ] एक प्रकार का कदम जो वैद्यक में भूपाल-संज्ञा पुं० [सं०] राजा । कटु, उष्ण, वृष्य और पित्त नथा वार्य धक माना जाता है। भूपाली-संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रागिनी जिसके विषय में आचाय्यौँ भूमिका-संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) रचना । (२) भेस बदलना । में बहुत मतभेद है। कुछ लोग इसे हिडोल राग की रागिनी (३) वक्तव्य के संबंध में पहले की हुई सूचना । (४) किमी और कुछ मालकोश की पुत्रवधू मानते हैं। कुछ का यह भी ग्रंथ के आरंभ की वह सूचना जिप उप ग्रंथ के संबंध मत है कि यह संकर रागिनी है और कल्याण, गोड तथा की आवश्यक और ज्ञातव्य बातों का पता चले । मुग्वत्रंध । बिलावल के मेल से बनी है। कुछ लोग इये संपूर्ण जाति वाचा । (५) बदांत के अनुसार चित्त की पाँच अवधाएँ की और कुछ ओघव जाति की मानते हैं। यह हास्य रस जिनके नाम ये हैं-क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र और निरद्ध । की रागिनी मानी जाता है। पर कुछ लोग इसे धार्मिक विशेष-जिस समय मन चंचर रहता है, उस समय उसकी उत्सवों पर गाने के लिये उपयुक्त बतलाते है। इसके गाने अवस्था क्षिप्त; जिस समय वह काम, क्रोध आदि के वशी- का समय रात को ६ दंड से १० दंड तक कहा गया है। भृत रहता है और उस पर तम या अज्ञान छाया रहता है, इसका स्वरग्राम इस प्रकार है-सा, ग, म, ध, नि, सा। उस समय मूहजिस समय मन चंचार होने पर भी बीच अथवा-रि, ध, सा, रि, ग, म, प । याच में कुछ समय के लिये स्थिर होता है, उस समय भूपुत्र-संज्ञा पुं० [सं०] (1) मंगल ग्रह । (२) नरकासुर नामक विक्षिप्त; जिस समय मन बिलकुल निश्च होकर किसी एक राक्षस वस्तु पर जम जाता है, उस समय एकाग्र; और जिस समय भूपुत्री-संवा मी० [सं० ] जानकी । पीता । मन किमी आधार की अपेक्षा न रखकर म्वतः बिलकुल भूप्रकंप-संज्ञा पुं० [मं० ] भूकंप । शांत रहता है, उस समय निरुद्ध अवस्था कहलाती है । भूफल-सं-1 पुं० [सं० 1 हरा मुंग। संशा श्री० [सं० भूमि | पृथ्वी जमीन । उ०--रसा अनंता भृबदरी-मंज्ञा पुं॰ [सं०] एक प्रकार का छोटा बेर । भूमिका विलाइला कह जाहि । -दाम। भूभल-संज्ञा स्त्री० [सं० भू+भुजे या अनु ? ] गर्म राख वा धूल । : भूमिकुष्मांड-संशा 'पु. [ सं० ] गरमी के दिनों में होने वाला गर्म रेत । ततूरी। कुम्हड़ा को जमीन पर होता है। भुई कम्हड़ा। भूभुज-संज्ञा पुं॰ [सं०] राजा। भूमि जुरी-संजा भा० [सं०] एक प्रकार की छोटी खजूर । भूभुरि -संज्ञा स्त्री० [सं० भू+ज ] भभल । ततूरी । गर्म रेत । 'भूमिगम- पु. ( 40 ] ऊँट । उ.--(क) पॉछि पमेऊ बयारि करौं अरु पायें पखारिहौं । भूमिगृह-संज्ञा पुं॰ [सं० ] तहख़ाना। भभुरि डाहे।-तुलसी । (ख) जायहु वितै दुपहरी में बलि भूमिचंपक-संशा पुं० [सं०] एक प्रकार का फूलवाला पौधा जो जाउँ । भुई भभुरि कस धरिहो कोमल पाई।-प्रताप भारत, बरमा, लंका, जावा आदि में प्रायः होता है । इसके नारायण । लंबे लंबे पत्ते बहुत ही सुंदर और फूल बहुत सुगंधित होते भूभृत्-संज्ञा पुं० [सं०] (1) राजा । (२) पहाब। है; और इसीलिये यह प्राय: बगीचों में लगाया जाता है। भूमंडल-संज्ञा पुं० [सं०] पृथ्वी । इसकी छाल, पत्ते और जब आदि का अनेक रोगों में ओषधि भूम-संशा पुं० [सं०] पृथ्वी। के रूप में प्रयोग होता है। इसकी जड़ पीसकर फोदे पर भूमय-संज्ञा स्त्री० [सं० ] सूर्य की पली, छाया । लगाने से वह बहुत जसदीपक जाता है । छाल का चूर्ण भूमि-संशा स्त्री० [सं० ] (१) पृथ्वी । जमीन । वि० दे० "पृथ्वी"। प्रायः घाव भरने में उपयोगी होता है। भुइँचपा । मुहा०-भूमि होना पृथ्वी पर गिर पड़ना। उ.----धीर मूर्छि | भूमिचल-संज्ञा पुं० [सं०] भूकंप । तब भूमि भयो जू। केशव । | भूमिजंधु-संशा स्त्री० [सं० ] छोटा जामुन । ६४८