पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३०२

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भूसुता २५९३ भृगुरेखा वि. जो पृथ्वी से उत्पन्न हो। जो और कीबों को भी अपने समान रूपवाला बना लेता भूसुता-संशा स्त्री० [सं०] सीता । है। (३) अतिविषा । अतीस । (४) भाँग। भूसर-संज्ञा पुं० [सं०] पृथ्वी के देवता, ब्राह्मण । गीफल-संज्ञा पुं० [सं० ] अमना । भस्तृण-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की घास । खधी । घटियारी। मुंगीश-संज्ञा पुं० [सं०] शिव । महादेव । भस्थ-संज्ञा पुं० [सं० ] मनुष्य। भृगेष्टा-संशा स्त्री० [सं.] (1) धीकुआर । (२) भारंगी । (३) भस्वर्ग-संज्ञा पुं० [सं०] सुमेरु पर्वत । युक्ती स्त्री। झंग-संज्ञा पुं० [सं०] (1) भौंरा । (२) एक प्रकार का कीड़ा, भुंकुश-संज्ञा पुं० [सं०] स्त्री का वेश धारण करनेवाला नट । जिसे बिलनी भी कहते हैं। इसके विषय में यह प्रसिद्ध है भृकुटी-संज्ञा स्त्री० [सं०] भौंह । कि यह किसी कीड़े के ढोले को पकड़कर ले आता है और भृगु-संज्ञा पुं० [सं०] (1) एक प्रसिद्ध मुनि जो शिव के पुत्र उसे मिट्टी से ढक देता है, और उस पर बैठकर और बैंक माने जाते हैं। प्रसिद्ध है कि इन्होंने विष्णु की छाती में मार मारकर इतनी देर तक और इतने ज़ोर से "भिन ! लात मारी थी। इन्हीं के वंश में परशुरामजी हुए थे। कहते भित्र" शब्द करता है कि वह कीड़ा भी इसी की तरह हो' है कि इन्हीं भृगु और अंगिरा तथा कपि से सारे संसार के जाता है। उ.-(क) भइ मति कीट मूंग की नाई। जहँ ' मनुष्यों की सृष्टि हुई है। ये ससर्षियों में से एक माने जाते तह में देखें रघुराई।-तुलसी । (ख ) कीट भुंग ऐसे उर. हैं। इनकी उत्पत्ति के विषय में महाभारत में लिखा है कि अंतर । मन स्वरूप करि देत निरंतर । लल्लू। एक बार रुद्र ने एक बड़ा यज्ञ किया था, जिसे देखने के भुंगक-संज्ञा पुं० [सं०] शृंगराज पक्षी। लिये बहुत से देवता, उनकी कन्याएँ तथा स्त्रियाँ आदि झंगज-संज्ञा पुं० [सं०] अगरु । आई थीं। जब ब्रह्मा उस यज्ञ में आहुति देने लगे, तब झंगजा-संज्ञा स्त्री० [सं०] भारंगी। देवकन्याओं आदि को देखकर उनका वीर्य स्खलित हो श्रृंगप्रिया-संज्ञा स्त्री० [सं० ] माधवी लता। गया । सूर्य ने अपनी किरणों से वह वीर्य खींचकर अग्नि भुंगबंधु-संज्ञा पुं० [सं०] (१) कुंद का पेड़। (२) कदम का पेड़ा। में डाल दिया। उसी वीर्य से अग्निशिखा में ये भृगु की झंगमोही-संशापुं० [ सं . भृगमोहिन् (1) चंपा। (२) कनकचंपा। उत्पत्ति हुई थी। (२) परशुराम । (३) शुक्राचार्य । (४) श्रृंगरज-संज्ञा पुं० दे० "मुंगराज"। शुक्रवार का दिन। (५) शिव।(६) जमदग्नि । (७) पहार श्रृंगराज-संज्ञा पुं० [सं०] (1) भैंगरा नामक बनस्पति । भङ्गरैया। का ऐसा किनारा जहाँ में गिरने पर मनुष्य बिलकुल नीचे घमरा । (२) काले रंग का एक प्रसिद्ध पक्षी जो प्राय: सारे आ जाय, बीच में कहीं रुक न सके। भारत, बरमा, चीन आदि देशों में पाया जाता है। भीम- | भृगुक-संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार कूर्मचक्र के एक देश राज । वि. दे. "भीसराज"। का नाम । भंगराजघृत-संज्ञा पुं० [सं० ] वैद्यक में एक प्रकार का घृत जो भृगुकच्छ-संज्ञा पुं० [सं०] आधुनिक भडौच जो प्राचीन काल साधारण घी में मैंगरया का रस मिलाकर बनाया जाता ! में एक प्रसिद्ध तीर्थ था । है। कहते हैं कि इसकी नास लेने से सफेद बाल काले हो भृगुज-संज्ञा पुं० [सं०] (1) भृगु के वंशज । भार्गव । (२) जाते हैं। | शुक्राचार्य । श्रृंगरीट-संज्ञा पुं॰ [सं० ] (१) शिव के द्वारपाल । (२) लोहा । भृगुग-संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय की एक चोटी का नाम । यह भृगवल्लभ-संज्ञा पुं॰ [सं०] भूमि कदंब । एक पवित्र तीर्थ स्थान माना जाता है। भुंगाभीष्ट-संज्ञा पुं० [सं० ] आम का वृक्ष । भृगुनंद, भृगुनंदन-संज्ञा पुं० [सं०] परशुराम । शृंगार-संज्ञा पुं० [सं०] (1) लौंग। (२) सोना । स्वर्ण । (३) भृगुनाथ-संगा पुं० [सं०] परशुराम । सोने का बना हुआ जल पीने का पात्र । (४) जल भरकर भृगुनायक-संशा पुं० [सं०] परशुराम । अभिषेक करने की मारी। भृगुपति-संशा पुं० [सं०] परशुराम । शृंगारि-संज्ञा स्त्री० [सं०] केवड़ा। भृगुराम-संज्ञा पुं० [सं० ] परशुराम । शृंगारिका-संज्ञा स्त्री० [सं०] झिल्ली नामक कीश। - भृगुरेखा-संज्ञा स्त्री० [सं०] विष्णु की छाती पर का वह चिह्न जो भंगार्क-संज्ञा पुं० [सं०] भंगरया । भृगु मुनि के लात मारने से हुआ था। उ०—(क) माथे शृंगी-संज्ञा पुं० [सं० मुंगिन् ] (१) शिवजी का एक पारिषद वा मुकुट सुभग पीताम्बर उर सोभित भृगु-रेखा हो।-सूर । गण । (२) बद का पेड़। (ख) तट भुजदंड भौर भृगुरेखा चंदन चित्रित रंगन सुदर । संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) भौरी । (२) बिलनी नामक कीदा। ६४९