पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३०५

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भना २५९६ भैंसाव भेना-कि० स० [हिं० भिगोना ] भिगोना । तर करना। 30- मेष-संशा पुं० दे० 'वेष"। सिरका भेइ कादि जनु आने । कमल जो भये रहहि विक- : भेषज-संज्ञा पुं० [सं०] (१) औषध । दवा । (२) जल । पानी। साने ।-जायसी। (३) सुख । (४) विगु । भेमम-संज्ञा पुं० [देश॰] एक प्रकार का बहुत छोटा और पतला भेषना*-क्रि० स० [हिं० भेष ] (1) भेष बनाना । स्वाँग बनाना। बाँस जो हिमालय में होता है। इसे रिगाल वा निगाल उ.-जा दिन ने उनके परी डीहि ता दिन ते, कैयो भेष भी कहते हैं । अंगाल में 'निगाली इसी बांस की बनती है। भेषि सुम्ह देखि देखि जात हैं। रघुनाथ । (२) पहनना। भेर-संशा स्त्री० दे. "भेरी"। उ.-अति सुगंध मर्दन अंग अंग ठनि बनि बनि भूषन भेरवा-संज्ञा पुं॰ [देश०] एक प्रकार का खजूर जिसके पत्तों के रेशों भेषति ।—सूर । से रस्सियाँ बनती है। यह भारत के प्रायः सभी गरम प्रदेशों भेस-संशा पुं० [सं० वप] (1)शाहरी रूप रंग और पहनावा में पाया जाता है। इसे पाछने से एक प्रकार की ताबी भी निक आदि । वेष। लती है जिसका व्यवहार बंबई और लंका में बहुत होता है। यौ०-वेष-भूषा। भेरा-संज्ञा पुं॰ [देश० ] मध्य तथा दक्षिणी भारत का मझोले ! (२) वह बनावटी रूप-रंग और नक्कली पहनावा आदि जो आकार का एक पेड़ जिससे लकड़ी, गोंद, रंग और तेल अपना वास्तविक रूप या परिचय छिपाने के लिये धारणा इत्यादि पदार्थ मिलते हैं। इसकी लकड़ी मेज़, कुर्सी, खेती किया जाय । कृत्रिम रूप और वस्त्र आदि । के औज़ार और तसवीरों के चौखटे आदि बनाने के काम में क्रि०प्र०-धरना ।-बदलना ।-बनाना । आती है; पर जलाने के काम की नहीं होती, क्योंकि इससे भेसज-संज्ञा स्त्री० [सं० भेषज ] दवा । औषध । धूआँ बहुत अधिक निकलता है। इसे भी भी कहते हैं। भेसना--क्रि० स० [म. वेश, हिं० भy ] वेश धारण करना।

  • संशा पुं० दे. "येड़ा"। उ०-भेरे चढ़िया झाँझरे वस्त्रादि पहनना । उ.--भाव दिया आवेंगे इग्राम । अंग

भवसागर के माहिं।-कबीर।। अंग आभूषण साजति राजति अपने धाम । रति रण जानि भेरी-संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ा ढोल या नगाड़ा । ढक्का । दुदुभी। अनंग नृपति सो आप नृपति राजति वल जोरति । अति भेरीकार-संज्ञा पुं० [सं० भरी+गार (प्रत्य॰)] [बी भेरिकारी] सुगंध मईन अंग अंग ठनि बनि बनि भूपन भेषति ।-सूर। भेरी बजानेवाला । उ०—नटिनि डोमिनी ढोलिनी सहना- भैस-संज्ञा स्त्री० [सं० महिष ] (1) गाय की जाति और आकार- इनि भेरिकारि ।--जायसी । प्रकार का पर उमस वड़ा चौपाया ( मादा ) जिसे लोग भेल-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम । दूध के लिये पालते हैं। इसके नर को भैंसा कहते हैं। वि० (1) कादर । डरपोक । भीरु । (२) चंचल । (३). विशेष-भैंस मारे भारत में पाई जाती है और यहीं से विदेश मूर्व बेवक। में गई है । इसके शरीर का रंग बिलकुल काला होता है भेला*-संज्ञा पुं० [हिं० भेंट ] (1) भिवंत। (२) भेंट । मुला और इसके रोएँ कुछ बड़े होते हैं । यह प्राय: जल या कात । उ०—(क) कृष्ण संग खेलब बहु देला । बहुत कीचड़ आदि में रहना बहुत पसंद करती है । इसका दूध दिवस महँ परिगो भेला ।-रधुराज । (ग्व) देउरा को दल । गौ के दृध की अपेक्षा अधिक गाढ़ा होता है और उसमें से जीत बघेला । तासां पन्यो एक दिन भेला ।-रघुराज। मक्खन या धी भी अधिक निकलता है। मान में भी पह संज्ञा पुं० दे. "भिलावाँ"। गौ से बहुत अधिक दूध देती है। संज्ञा पुं० [?] बड़ा गोला या पिंड । जैसे, गुरु का भेला। महा०-भैंय काटना=गरमी का रोग होना । उपदंश होना। भेली-संज्ञा स्त्री० [?] (१) गुड़ या और किसी चीज की : (बाज़ारू) गोल बट्टी या पिंडी। जैसे, चार भेली गुल। (२) गुड। (क.). (२) एक प्रकार की मछली जो पंजाब, बंगाल तथा दक्षिण भेव* -संज्ञा पुं० [सं० भेद । (१) मर्म की बात । भेद । रहस्य। भारत की नदियों में पाई जाती है। इसकी लंबाई तीन उ.-वास्तविक नृप चल्यो देव वर वाम देव बल । जरासंध फुट होती है। इसका मांस खाने में स्वादिष्ट होता है, परंतु नरदेव भेव गुनि मति अमेव भल।-गोपाल। (२) बारी। उसमें हड्डियाँ अधिक होती हैं। (३) एक प्रकार की घास । पारी । उ०-चौकीदै जनु अपने भेव 1 बहुरे देवलोक को भैसा-संशा पुं० [हिं० भैस ] भैंस नामक पशु का नर जो प्रायः देव । केशव । बोझ दोने और गादियाँ आदि खींचने के काम में आता है। भेवना-क्रि० स० [हिं० भिगोना] भिगोना । तर करना। उ०- पुराणानुसार यह यमराज का वाहन माना जाता है। अति आवर अनुराग भगति मन भेवहिं। तुलसी। भैसावा-संज्ञा पुं० [हिं० भैस+आव (प्रत्य॰)] भैंस और मैंसे का भेश-संज्ञा पुं० दे० "वैष"। जोड़ा खाना । भैंसे से भैंस का गर्भ धारण करना।