पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३०७

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भैरवीचक्र २५९८ भोक्तृशक्ति त्रिपुर भैरवी, कौलेश भैरवी, रुद्र भैरवी, निस्या भैरवी, चैतन्य | भोंगरा-संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार की बेल या लता। भैरवी आदि । इन सबके ध्यान और पूजन आदि भिन्न ! भोगाल-संज्ञा पुं० [अ० म्यूगुल } वह बड़ा भोपा जिसका एक भिन्न हैं। ओर का मुँह बहुत छोटा और दूसरी ओर का मुंहबहुत (२) एक रागिनी जो भैरव राग की पत्नी और किसी किसी अधिक चौडा तथा फैला हुआ होता है। इसका छोटे मुंह- के मत से मालख राग की पवी मानी जाती है। हनुमत के वाला सिरा जब मुँह के पास रखकर कुछ बोला जाता है, मत से यह संपूर्ण जाति की रागिनी है और शरद ऋतु में तब उसका शब्द चौडे मुंह से निकलकर बहुत दूर तक प्रात:काल के समय गाई जाती है। इसका स्वरग्राम इस सुनाई देता है। इसका व्यवहार प्राय: भीषभाड़ के समय प्रकार है-म, प, ध, नि, सा, ऋ,ग। संगीत रवाकर के बहुत से लोगों को कोई बात सुनाने के लिये होता है। मत से इसमें मध्यम वादी और धैवत संवादी होता है। भौचाल-संज्ञा पुं० दे. "भूकंप"। (३) पुराणानुसार एक नदी का नाम । (४) पार्वती। (डिं०)! भोंडा-वि० [हिं० भद्दा या भों से अनु०] [स्त्री० भोगी ] भहा । भैरवीचक्र-संज्ञा पुं० [सं०] (1) तांत्रिकों या घाममार्गियों का | बदसूरत । कुरूप। वह समूह जो कुछ विशिष्ट तिथियों, नक्षत्रों और समयों में संज्ञा पुं० [ देश. ] जुआर की जाति की एक प्रकार की देवी का पूजन करने के लिये एकत्र होता है। इसमें सब घास जो पशुओं के चारे के काम में भाती है। इसमें एक लोग एक चक्र में बैठकर पूजन और मद्यपान आदि करते प्रकार के दाने लगते हैं जो ग़रीब लोग खाते हैं। है। इसमें केवल दीक्षित लोग ही सम्मिलित होते हैं और | भोडापन-संवा पुं० [हिं० भोंडा+पन (प्रत्य॰)] (1) भदापन । वर्णाश्रम आदि का कोई विचार नहीं रखा जाता । (२) (२) बेहूदगी। मधयों और अनाधारियों आदि का समूह । | भोंडी-संशा स्त्री० [हिं० भोंडा ] वह भेद जिसकी छाती पर के भैरधीयाचना-संज्ञा स्त्री० [सं० भैरवी यातना ) पुराणानुसार वह | रोएँ सफ़ेद और बाकी सारे शरीर के रोएँ काले हों। यातना जो प्राणियों को मरते समय उनकी शुद्धि के लिये (गदरिया) भैरवजी देते हैं। कहते हैं कि जब इस प्रकार की यातना से भोतरा-वि० [हिं० भुथरा ] (शब) जिसकी धार तेज़ न हो। प्राणी सब पातकों शुद्ध हो जाता है, तब महादेवजी कुंव धारवाला। उसे मोक्ष प्रदान करते हैं। भोंतला-वि० [हिं० भुथरा ] जिसकी धार तेज न हो। कुंद । भैरवेश-संज्ञा पुं० [सं०] शिव । भुथरा । भैरा-संज्ञा पुं० दे. "बहेड़ा" । । भोंदू-वि० [हिं० बुद्धू] (1) बेवकूफ । मूर्ख । (२) सीधा । भोला । भैरी-संशा मा० दे० "बहरी"। (पक्षी) भोंपू-संज्ञा पुं० [ भी अनु०+पू (प्रत्य॰)] तुरही की तरह का, पर भैरू-संक्षा पु० दे. “भैरव"। बिलकुल सीधा, एक प्रकार का बाजा जो फंककर बजाया भैरो-संज्ञा पुं० दे० "भैरव"। जाता है। इसका व्यवहार प्रायः वैरागी साधु आदि करते हैं। भैवा -संज्ञा पुं० दे० "भैया"। । भोसले-संज्ञा पुं० [देश॰] महाराष्ट्रों के एक राजकुल की उपाधि । भैयादा-संशा पुं० [हिं० भाई+आद (प्रत्य०)1 (1) भाईचारा। (महाराज शिवाजी और रघुनाथ रात्र आदि इसी राजकुल भाईपना । (२) विरादरी। के थे।) भैषज-संश। पुं० [सं०] (1) औषध । दवा । (२) वैद्य के शिष्य : भा*-क्रि० अ० [हिं० भया ] भया। हुआ। आदि। (३) लवा पक्षी। संबोधन [सं०] है । हो। (क.) भैषज्य-संज्ञा पु० [सं०] दवा । औषध ।

भोकस*-वि० [हिं० भृख+स (प्रत्य॰)] भुक्खड़ । भूखा ।

भैष्मकी-संज्ञा स्त्री० [सं०] भीष्म की कन्या रुक्मिणी । भोकार-संशा स्त्री० [ भो से अनु०+कार (प्रत्य॰)] ज़ोर ज़ोर भैहान-संज्ञा पुं० हिं० भय+हा (प्रत्य०) ] (1) भयभीत । रासे रोना। हुआ। (२) जिस पर भूत वा किमी देव का आवेश आता क्रि० प्र०-फाइना । हो । उ०-घूमन लगे समर मैं पहा । मनु अभुआत भाउ भोक्ता-वि० [सं० भोक्त] (1) भोजन करनेवाला । (२) भोग भर भैहा। लाल । करनेवाला । भोगनेवाला । (३) ऐश करनेवाला । ऐयाश । भों-संज्ञा स्त्री० [ अनु० ] भों भों का शब्द । संज्ञा पुं० (१) विष्णु । (२) भर्ता । पति । (३) एक प्रकार भोंकना-क्रि० स० [भक से अनु.] बरछी, तलवार या इसी प्रकार का प्रेत। की और कोई नुकीली चीज़ जोर से फंसाना । बुसेड़ना। | भोक्तत्व-संज्ञा पुं० [सं०] भोक्ता का धर्म या भाव। क्रि० अ० दे. "भूकना"। भोक्तशक्ति-संज्ञा स्त्री० [सं०] बुद्धि ।