पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भौमी २६०४ भ्रमरा - वि. भूमि संबंधी । भूमि का। उ.-महा देखि के तुम भ्रमि गए। सूर । (२) भर- भौमी-संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी की कन्या, सीता । कना । भूलना। भौर*-संज्ञा पुं० [सं० भ्रमर ] (1) दे. "भौरा"। (२) चोदों का भ्रममूलक-वि० [सं०] जो भ्रम के कारण उत्पन्न हुआ हो। एक भेद । उ.---लील समंद हाल जग-जामे। हाँसल मौर जिसका आविर्भाव भ्रम के कारण हुआ हो। जैसे,—आपका गियाह बखाने । —जायसी । (३) दे. "भंवर"। यह विचार श्रममूलक है। भौलिया-संहा स्त्री० [ देश.] बजरे की तरह की पर उससे कुल भ्रमर-संज्ञा पुं० [सं०] (१) भौंरा । वि.दे. "मीरा"। छोटी एक प्रकार की नाव जो ऊपर से ढकी रहती हैं। यौ०-भ्रमर गुफा-योगशारू के अनुसार हृदय के अंदर का भौसा-संज्ञा पुं० [ देश० ] (1) भीड़-मादा जन-समूह । (२) हो एक स्थान । उ०-केवल सकल देह का साखी भ्रमर गुफा हुला। गड़बड़। अटकाना । कबीर । (२) उघ का एक नाम । गंगारी-संज्ञा पुं० [सं० भृगार ] मींगुर । (हिं०) यो०-भ्रमरगीत-वइ गीत या काव्य जिसमें उद्धव के प्रति प्रज नंगी-संज्ञा पुं० [सं० मुंगी ] एक प्रकार का गुंजार करनेवाला की गोपियों का उपालंभ हो। पतिंगा। (३) दोहे का पहला भेद जिसमें २२ गुरु और लघु वर्ण भ्रंश-संशा पुं० [सं०] (1) अधःपतन । नीचे गिरना । (२)! होते हैं। उ०-सीता सीता नाय को गावो आठो जाम । नाश । वस । (३) भागना। इच्छा पूरी जो करे औ देवै विश्राम । (१) छप्पय का तिर- वि. भ्रष्ट । खराब। सठवा भेद जिसमें 4 गुरु, १३६ लघु, १४१ वर्ण या कुल भ्रकुंश, भ्रकुस-संज्ञा पुं० [सं०] वह नाचनेवाला पुरुष जो बी १५२ मानाएं होती है। ___ का वेष धरकर नाचता हो। वि० कामुक । विषयी। भ्रकुटि-संज्ञा स्त्री० [सं०] भृकुटी। भौंह । भ्रमरक-संशा पुं० [सं०] (1) माथे पर लटकनेवाले बाल । भ्रत-संज्ञा पुं० [सं० भृत्य ] दास । सेवक । (डि.) भ्रमरच्छली-संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का बहुत बड़ा जंगली भ्रद्र-सशा पुं० [हिं० ] हाथी । वृक्ष जिसके पत्ते बादाम के पत्तों के समान होते हैं और भ्रम-संज्ञा पुं० [सं०] (9) किसी पदार्थ को और का और सम- | जिसमें बहुत पतली पतली फलियाँ लगाती है। इसकी मना । किसी चीज़ या बात को कुछ का कुछ समझना। लकड़ी सफेद रंग की और बहुत बढ़िया होती है और प्रायः मिथ्या ज्ञान । भ्रांति। धोखा। (२) संशय। संदेह तलवार के म्यान बनाने के काम में आती है । वैद्यक में शक। यह चरपरी, गरम, करवी रुचिकारक, अग्निदीपक और क्रि० प्र०–में डालना। में पड़ना ।—होना। सर्वदोष-नाशक मानी जाती है। (३) एक प्रकार का रोग जिसमें रोगी का शरीर चलने के पर्या-मुंगाहा। भ्रमराहा। क्षीरन । भूगमूलिका । उग्र- समय चक्कर खाता है और वह प्राय: जमीन पर पड़ा। गंधा। छली। रहता है। यह रोग मूर्छा के अंतर्गत माना जाता है। भ्रमरमारी-संशा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पौधा जो मालव में (१) मूछौं । बेहोशी। (५) नल । पनाला । (६) कुम्हार अधिकता से होता है। इसमें सुदर और सुगंधित फूल का चाक । (७) भ्रमण । घूमना-फिरना । (८) वह पदार्थ लाते हैं। वैद्यक में यह तिक और पित्त, श्लेष्म, ज्वर, जो चक्राकार धूमता हो। चारों ओर घूमनेवाली चीज़। ' शोप, कुष्ट, प्रण तथा त्रिदोष का नाश करनेवाली मानी वि० (6) घूमनेवाला। चक्कर काटनेवाला। (२) भ्रमण : जाती है। करनेवाला । चलनेवाला। पर्या-भ्रमरादि । भृगादि। मांसपुष्पिका। कुष्टारि । भ्रमरी। भ्रमकारी-वि० [सं० भ्रमकारिन् ] भ्रम उत्पन्न करनेवाला । शक यष्ठिलता। में डालनेवाला। भ्रमरविलासिता-संज्ञ स्त्री० [सं०] एक वृस का नाम जिसके भ्रमण-संज्ञा पुं० [सं०] (1) घूमना-फिरना। विचरण । (२) माना प्रत्येक चरण में म भ न लग sss, sh, I,I, होता जाना । (३) यात्रा सफर । (४) मैदल । चक्कर । फेरी।। है। उ.--मैं भौने लोगन नहिररिहौं। माधो को दै मन भ्रमणी-संशा स्त्री० [सं०] (1) सर या मनोविनोद के लिये नहि फिरिहौं । फूलै वाली भ्रमरविलासिता । पावै शोभा खलना। घूमना फिरना । (२) जोंक। अलि सह मुदिता। भ्रमणीय-वि० [सं०] (1) धूमनेवाला । (२) चलने फिरनेवाला । भ्रमरहस्त-संशा पुं० [सं०] नाटक के चौदह प्रकार के हस्त- भ्रमना*-क्रि० अ० [सं० भ्रमण ] घूमना । फिरना। विन्यासों में से एक प्रकार का हस्तविन्यास । क्रि० अ० [सं० भ्रम ] (1) धोखा खाना । भूल करना । भ्रमरा-संवा पुं० [सं०] भ्रमरच्छली नामक पौधा ।