पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३२१

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मंत्रसंहिता २६१२ मंदकर्णि () सर्पण-ज्योतिर्मत्र द्वारा जल से मंत्र के प्रत्येक वर्ण का ! मंथक-संशा पुं० [सं०] (1) एक गोत्रकार मुनि का नाम । (२) सर्पण करना। मथक मुनि के वंश में उत्पन पुरुष । (९) दीपन-ज्योतिमंत्र से दीप्ति साधन करना। | मंथज-संशा पुं० [सं०] नवनीत । नैनूं । मक्खन । (१०) गोपन-मंत्र को प्रकट न करके सदा गुप्त रखना और | मंथन-संज्ञा पुं० [सं० ] (1) मथना । बिलोना । (२) अवगाहन । ओठों के बाहर न निकालना। खूब डूब डूबकर तत्वों का पता लगाना । (३) मथानी । मंत्रसंहिता-संज्ञा स्त्री० [सं०] वेदों का यह अंश जिसमें मंत्रों मंथपर्वत-संज्ञा पुं॰ [सं० ] मंदर पर्वत । का संग्रह हो। मंथर-संज्ञा पुं० [सं० ] (१) बाल का गुच्छा । (२) कोष । खज़ाना। मंत्रसिद्ध-वि० [सं०] [स्त्री० मंसिद्धा ] जिसको मंत्र सिद्ध हो। (३) फल । (४) बाधा । अवरोध । रोक । (५) मथानी । जिसका प्रयोग किया हुआ कोई मंत्र निष्फल न जाता हो । (६) कोप । गुस्सा । (७) दूत । गुप्तचर । (6) वैशाख का मंत्रसिद्धि-संज्ञा स्त्री० [सं०] मंत्र का सिद्ध होना । मंत्र की महीना । (९) दुर्ग। (१०) भँवर । (11) हरिण। (१२) एक सफलता । मंत्र में प्रभाव आना। प्रकार का ज्वर। मथ ज्वर। वि० दे० "मंध"।(१३) मक्खन । मंत्रसूत्र--संज्ञा पुं० [सं०] वह रेशम या सूत का तागा जो मंत्र वि० (१) मटर । मंद । सुस्त । (२) जद । मंदबुद्धि । (३) पढ़कर बनाया गया हो। गंडा । भारी। स्थूल। (५) झुका हुआ। टेदा। (५) नीच । अधम । मंत्रित-वि० [सं०] मंत्र द्वारा संस्कृत । अभिमंत्रित । मंथरा-संज्ञा स्त्री० [सं० ] रामायण के अनुसार कैकेयी की एक मंत्रिता-संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) मंत्री का भाव वा पद मंत्रित्व । दासी जो उसके साथ मायके से आई थी। इसी के बह- (२) मंत्री की क्रिया । मंत्री का काम । मन्त्रिस्व । काने पर कैकेयी ने रामचंद्र को बनवास और भरत को मंत्रित्व-संज्ञा पुं० [सं० ] मंत्री का कार्य वा पद । मंत्रिता। राज्य देने के लिये महाराज दशरथ से अनुरोध किया था। मंत्री-पन। मंथरु-संज्ञा पुं० [सं०] चवर की वायु । मंत्रिपति-संशा पुं० [सं० ] प्रधान अमात्य । मंथा-संज्ञा स्त्री० [सं०] मेयो। मंत्री-संशा पुं० [सं० मंत्रिन् ] (१) परामर्श देनेवाला । सलाह | मंथान-संज्ञा पुं० [सं०] (1) मथानी । (२) मंदर नामक पर्वत । देनेवाला । (२) वह पुरुष जिसके परामर्श से राज्य के काम (३) महादेव । (४) अमलतास । (५) एक वर्णिक छंद काज होते हों। सचिव।। जिसके प्रत्येक चरण में दो सगण होते हैं। उ०-वाणी पर्या-अमात्य । सचिव। धीसख । सामवायिक ।। कही बान । कीन्ही न खोकान । अद्यापिआनीन । रेवादिका- (३) शतरंज की एक गोटी का नाम जो राजा से छोटी। नीन । -केशव । (६) भैरव का एक भेद । मानी जाती है और पक्ष की शेष सब गोटियों से श्रेष्ठ होती मंथिता-वि० [सं० मंधित ] [स्त्री० मंथित्री ] मथनेवाला। है। यह टेडी सीधी सब प्रकार की चालें चलती है। इसे मथिनी-मंशा स्त्री० [सं०] माठ । मटका । वज़ीर या रानी भी कहते हैं। मंथिप-वि० [सं० ] मया हुआ सोमरस पीनेवाला । मंथ-संशा पुं० [सं०] (1) मथना । बिलोना । (२) हिलाना। मंथी-वि० [सं० मंथिन् ] (1) मथनेवाला । (२) पीदाकारक । क्षुब्ध करना । (३) मईन । मलना । (४) मारना । ध्वस्त (३) मंथनयुक्त। करना । (५) कंपन । (६) एक प्रकार की पीने की वस्तु संज्ञा पुं० मथा हुआ सोम रस । जो कई म्यों को एक साथ मथकर बनाते हैं। (७) दूध मंद-वि० [सं०] (1) धीमा । सुस्त । वा जल में मिलाकर मथा हुआ सत्त। (८) मथानी। क्रि० प्र०—करना । --पड़ना।-होना। वह औज़ार जिसमे कोई पदार्थ मथा जाता है। (१) मृग (२) ढीला । शिथिल । (३) आलसी । (४) मूर्ख । कुबुद्धि । की एक जाति का नाम । (१०) सूर्य की किरण। (18) (५) खल । दुष्ट । आँख का एक रोग जिसमें आँखों से पानी या कीचड़ यहता संज्ञा पुं० (१) वह हाथी जिसकी छाती और मध्य भाग की है। (१२) एक प्रकार का ज्वर जो बाल-ोग के अंतर्गत वलि तीली हो, पेट लंबा, चमड़ा मोटा, गला, कोख और माना जाता है। वैधक के अनुसार यह रोग ज्वर में धी पंछ की धरी मोटी हो तथा जिसकी दृष्टि सिंह के समान खाने और पसीना रोकने से होता है। इसमें रोगी को दाह, हो। (२) शनि । (३) यम । (४) अभाग्य । (५) प्रलय । भ्रम, मोह और मतली होती है, प्यास अधिक लगती | मंदा -संवा पुं० [ देश० ] घोड़े का एक रोग जिसमें उसके गले है, नींद नहीं आती, मुंह लाल हो आता है और गले के के पास की हड़ी में सूजन आ जाती है। नीचे छोटे छोटे दाने निकल आते हैं। कभी कभी अतीसार मंदक-वि० [सं०] मूर्ख । निर्वाध । भी होता है। मंधर। मंदकर्णि-संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम ।