पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३३४

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मजन मटकी सो जाता ज़्यादा यह मादा मल-मूत और मज की सलीती है। जाता है। (२) लोहे का एक औज़ार जिसमें लकड़ी का पभाकर। दस्ता लगा रहता है और जिससे चमड़े पर का सुरखुरापन मज्जन-संशा पुं० [सं०] स्नान । नहाना । उ०-दरस परसं मजन दूर किया जाता है। अरु पाना।-तुलसी। + संज्ञा पुं० दे० "झमेला"। मजना*-कि० अ० [सं० मज्जन ] (1) स्नान करना। गोता मझोला-वि० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ+ओला (प्रत्य॰)] (1) ममला। लगाना । नहाना । (२) दूबना । निमन होना। बीच का । मध्य का (२) जो आकार के विचार से न मज्जा-संज्ञा स्त्री० [सं० ] नली की हड्डी के भीतर का गूदा जो बहुत बड़ा हो और न बहुत छोटा । मध्यम आकार का । बहुत कोमल और चिकना होता है। मझोली-संज्ञा स्त्री० [हिं० मझोला] (1) एक प्रकार की बैलगाड़ी। मज्म-क्रि० वि० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ ] मध्य । बीच । (२) टेकुरी की तरह का एक औज़ार जिससे जूते की नोक मझधार-संशा स्त्री० [हिं० मझ मध्य+धार ] (1) नदी के मध्य सी जाती है। की धारा । बीच-धारा । (२) किसी काम का मध्य । मटा-संज्ञा पुं० [हिं० मटका] मिट्टी का बड़ा पात्र जिसमें दूध दही मुहा०--मझधार में छोड़ना=(१) किसी काम को बीच में ! रहता है। मटका । मटकी। उ०-तौ लगि गाय बैबाय ही छोड़ना । पूरा न करना । (२) किसी को ऐसी अवस्था में उठी कवि देव यधून मध्यो दधि को मट।-देव ।। छोड़ना कि वह इधर का रहे, न उधर का। मटक-संज्ञा स्त्री० [सं० मट-चलना+क (प्रत्य॰)] (1) गति । मझगसिंगही-संज्ञा स्त्री० [ देश ] बैलों की एक जाति । चाल । उ०-कुंडल लटक मोहै भृकुटी मटक मोहै अटकी मझला-वि० [सं० मध्य, प्रा. मज्झ+ला (प्रत्य॰)] मध्य का। चटफ पट पीत फहरान की ।-दीनदयाल । (२) मटकने च का । जैसे, मझला भाई। की क्रिया या भाव। मझाना +-क्रि० स० [सं० मध्य ] प्रविष्ट करना। बीच में फंसाना।। यौ०-चटक मटक । क्रि० अ० प्रविष्ट होना । पैठना । मटकना-कि० अ० [सं० मट'चलना ] (1) अंग हिलाते हुए मझार-क्रि० वि० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ+आर (प्रत्य॰)] बीच चलना । लचककर नखरे से चलना । ( विशेषतः बियों में। मध्य में । में । भीतर । का) (२) अंगों अर्थात् नेत्र, भृकुटी, उँगली आदि का इस मझावना*-कि० अ० स० दे० "मझाना"। प्रकार संचालन होना जिसमें कुछ लचक या नवरा जान मझिया-संवा स्त्री० [सं० मध्य, प्रा. मज्श+श्या (प्रत्य॰)] लकड़ी पड़े। (३) हटना । लौटना । फिरना । उ०--श्याम सलोने की वह पट्टियाँ जो गाड़ी के पेंदे में लगी रहती हैं। रूप में अरी मन अयो।ऐसे है लटक्यौ तहाँ ते फिरि नहि मझियाना-कि० अ० [हिं० मांस+श्याना (प्रत्य॰)] नाव ' मटक्यौ बहुत जतन मैं कन्यो।-सूर । (४) विचलित होना । खेना । मलाही करना । उ०-प्रथमहि नैन मलाह जे लेत हिलना । उ०.-उतर न देत मोहनी मौन है रही री सुनि सुनेह लगाइ । तब ममियावत जाय कै गहिर रूप दरियाइ।। सब बात नेकहू न मटकी।-सूर। -स्यनिधि । मटकनि*-संशा स्त्री० [हिं० मटकना ) (1) गति । चाल । (२) कि० अ० [सं० मध्य+इयाना (प्रत्य॰)] मधमें होकर आना। मटकने का भाव । उ०-भृकुटी मटकनि पीत पर घटक च से होकर निकलना। उ०-सपने हू आए न जे हित लटकती चाल।-बिहारी । (३) नाचना । नृत्य । (५) गलियन मशियाह । तिन सों दिल को दरद कहि मत दे ! नखरा । मटक। भरम गमाइ-सनिधि | | मटका-संज्ञा पुं० [हि० मिट्टी+क (प्रत्य॰)] मिट्टी का बना हुआ क्रि० स० मध्य में से निकालना। बीच में से ले जाना। एक प्रकार का बड़ा घड़ा जिसमें अन्न, पानी इत्यादि रम्बा मझियारा-वि० [सं० मध्य, प्रा० मज्जा+श्यारा (प्रत्य॰)] बीच जाता है। मट । माट। का ! मध्यम मटकाना-क्रि० स० [हिं० मटकना का स.] नखरे के साथ अंगों मश्रा -संज्ञा पुं० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ-+-उआ (प्रत्य॰)] हाथ का संचालन करना । आँख, हाथ आदि हिलाकर कुछ चेष्टा में पहनने की मठिया नामक चूड़ियों में कोहनी की ओर से करना । चमकाना । जैसे, हाथ मटकाना, आँखें मटकाना । पपनेवाली दूसरी चूबी जो पठेला के बाद होती है। उ.-भृकुटी मटकाप गुपाल के गाल में आँगुरी ग्वालि मझेरू---संज्ञा पुं० [सं० मध्य, प्रा. मज्झ+एरू (प्रत्य॰)] जुलाहों के ! गहाय गई। मुबारक। जड़ी नामक औज़ार के बीच की हकली। कि० स० दूसरे को मटकने में प्रवृत्त करना । मझेला-संज्ञा पुं० [ देश. ] (1) चमारों का लोहे का एक औजार | मटकी-संशा स्त्री० [हिं० मटका ] छोटा मटका । कमोरी। ___ जो एक बालिश्त का होता है। इससे जूते का सला लिया संज्ञा स्त्री० [हिं० मटकाना ] मटकाने का भाव । मटक।