पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मठपति मढ़ना - मठपति-संज्ञा पुं० दे० "मठधारी"। महा-वि० [हिं० माँड+हा (प्रत्य॰)] माद खानेवाला । मठर-संशा पुं० [सं०] एक प्राचीन मुनि का नाम । संज्ञा पुं० [सं० मंडप ] मिट्टी या घास फूस आदि का बना मठरना-संज्ञा पुं॰ [देश॰] सोनारों तथा कसगरों का एक औज़ार हुआ छोटा घर। जो छोटे हथौड़े की तरह का होता है । इसका व्यवहार संज्ञा पुं॰ [देश॰] भुना हुआ चना । उस समय होता है जिस समय हलकी चोट देने का काम मड़ाड़ा-संज्ञा पुं० [देश॰] छोटा कचा तालाब या गड्ढा । पड़ता है। उ.-मदाब, बावली और कुएँ का झांकना ।-जगनाथ । मठरी-संज्ञा स्त्री० [देश० ] (1) एक प्रकार की मिठाई जिसे । मड़ियार-संज्ञा पुं० [हिं० मारवाड़ ? ] क्षत्रियों की एक जाति जो टिकिया भी कहते हैं । (२) दे. "मट्ठी"। मारवार में रहती है। मठा-संज्ञा पुं० दे० "मट्ठा"। मडुश्रा-संज्ञा पुं॰ [देश॰] (1) बाजरे की जाति का एक प्रकार मठाधीश-संज्ञा पुं० [सं०] (1) मठ का प्रधान कार्यकर्ता या! का कदन्न जो बहुत प्राचीन काल में भारत में बोया जाता है; मालिक । (२) मठ में रहनेवाला प्रधान साधु या महंत । और अब तक अनेक स्थानों में जंगली दशा में भी मिलता मठाना-संज्ञा पुं० दे० "मठरना"। है। यह वर्षा ऋतु में खाद दी हुई भूमि में कभी कभी मठिया-संज्ञा स्त्री० [हिं० मठ+इया (प्रत्य०)1 (9) छोटी कुटी ज्वार के साथ और कभी कभी अकेला बोया जाता है। या मठ। मैदानों में इसकी देख रेख की विशेष आवश्यकता होती है; संज्ञा स्त्री० [देश॰] फूल (धातु) की बनी हुई चूड़ियाँ पर हिमालय की तराई में यह अधिकांश में आप से आप जो नीच जाति की स्त्रियाँ पहनती हैं। ये एक एक बाँह में ही तैयार हो जाता है। अधिक वर्षा से इसकी फसल को २०-२५ तक होती है और कोहनी से कलाई तक पहनी हानि पहुँचती है। यदि इसकी फसल तैयार होने पर भी जाती है। इनमें कोहनी के पास की चूदी सब से बड़ी खेतों में रहने दी जाय, तो विशेष हानि नहीं होती। होती है; और उसके उपरांत की चूषियाँ क्रमशः छोटी फसल काटने के उपरांत इसके दाने वर्षों तक रखे जा सकते होती जाती हैं। हैं; और इसी कारण अकाल के समय गरीबों के लिये इसका मठी-संज्ञा स्त्री० [हिं० मठ+ई ( प्रत्य॰)] (1) छोटा मठ । (२) बहुत अधिक उपयोग होता है। इसे पीसकर आटा भी मठ का अधिकारी । मठ का महंत । मठधारी । उ. बनाया जाता है और यह चावलों आदि के साथ उबालकर सुपुत्र होहु जै-हठी मठीन सों न बोलिये। केशव । भी खाया जाता है। इससे एक प्रकार की शराब भी बनती मठुलिया-संज्ञा खी० [हिं० मठरा ] (1) टिकिया या मठरी है। वैचक में इसे कसैला, कडुआ, हलका, तृप्तिकारक, बल- नाम की मिठाई । (२) दे. "मट्ठी"। वर्धक, त्रिदोष-निवारक और रक्त दोष को दूर करनेवाला मठोर-संज्ञा स्त्री० [हिं० मठ्ठा ] (1) दही मथने वा मट्ठा रखने माना है। की मटकी जो साधारण मटकियों से कुछ बड़ी होती है। पर्या०---पटक । स्थूलकेगु । रूक्ष । स्थूल प्रियंगु । (२) नील बनाने की नाँद । नील का माठ। (२) एक प्रकार का पक्षी। मठोरना-क्रि० स० [ देश० ] (१) किसी लकड़ी को खरादने के मईया -संज्ञा स्त्री० [सं० मंडपी ] (१) छोटा मंडप । (२) कुटी। लिये रंदालगाकर ठीक करना । (२) मठरना नामक हथौड़े से पर्णशाला । झोपड़ी। (३) मिट्टी का बना हुआ छोटा घर । धीरे धीरे चोट लगाकर गहने आदि ठीक करना । (सुनार) महोड़-संशा सी० दे० "मरोह"। मठौरा-संज्ञा पुं० [हिं० मठोरना ] एक प्रकार का दा जिससे | महोड़ी-संज्ञा स्त्री० [हिं० मरोडना+ई (प्रत्य॰) ] लोहे की छोटी लकड़ी रदकर खरादने आदि के योग्य करते है। पंचदार कटिया । मई-संज्ञा स्त्री० [सं० मंडपी ] (1) छोटा मंडप । (२) कुटिया। मढ़-संज्ञा पुं० दे. "म"। पर्णशाला। वि. जो जपदी हटाने से भी न हटे । अबकर बैठनेवाला। संज्ञा स्त्री० दे० "मी"। मढ़ना-क्रि० स० [सं० मंडन ] (1) आवेष्ठित करना । चारों ओर मदमड़ाना-क्रि. अ. स. दे. "मरमराना"। से घेर देना । लपेट लेना । जैसे, तसवीर पर चौखटा महराना-कि० अ० दे० "मँडराना" । उ.---सरस कुसुम - मदना, टेवुल पर काबा मदना । (२) बाजे के मुंह पर रात अलि न झुकि झपटि लपटात ।-बिहारी। बजाने के लिये चमबा लगाना । उ०—(क) कमठ खपर मड़ला-संशा पुं० [सं० मंडल ] अनाज रखने की छोटी कोठरी । मदि खाल निसान बजायहीं।-तुलसी। (ख) मढ्यो दमामा मड़वा-संशा पुं० दे० "म "। जात क्यों सौ चूहे के चाम ।—बिहारी । मड़वारी-संज्ञा पुं.दे. "मारवादी"। मुहा०-मद आना-घिर आना (जैसे बादलों का) 13-