पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३४१

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मत्स्यगंधा २६३२ मथानी मत्स्यगंधा-संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) जलपीपल । (२) व्यास की इत्यादि । उ०—(क) का भा जोग कहानी कयें। निकसै माता सत्यवती का एक नाम । वि. दे. "प्यास"। धीव न बिनु दधि मथें ।-यसी । (ख) दत्तात्रेय मर्म मत्स्यजीवी-संज्ञा पुं० [सं० मत्स्यजीचिन् निषाद जाति का नहिं जाना मिथ्या स्वाद भुलाना । सलिला मथि के धृत एक नाम । को काढेउ ताहि समाधि समाना।-कबीर । (ग) मुदिता मत्स्यद्वादशी-संशा स्त्री० [सं० ] अगहन सुदी द्वादशी । मथाह विचार मथानी । दम अधार रजु सत्य सुबानी।- मत्स्यद्वीप-संज्ञा पुं० [ से0 ] पुराणानुसार एक द्वीप का नाम । तुलसी । (घ) ज्ञान कथा को मथि मन देखो उधो बहु मत्स्यनाथ-संश: पु० "मत्स्येंद्रनाम" । धौपी । टरति घरी छिन एक न अँखिया श्याम रूप रोपी। मत्स्य नाशक-संज्ञा पुं० [सं०] कुरर पक्षी। मत्स्यनी-संज्ञा स्त्री० [सं०] पाँच प्रकार की सीमाओं में से वह क्रि० स०-डालना।-देना ।--लेना। मीया जो नदी या जलाशय आदि के द्वारा निर्धारित होती है। (२) चलाकर मिलाना ।गति देकर एक में मिलाना । उ०- मत्स्यपुराण-संज्ञा पुं० दे० "मत्स्य" (६)। मथि भृग मलय कपूर सबन के तिलक किये । कर मणि मत्स्य बंध-संशा पुं० [सं०] धीवर । मलाह। माला पहिराए सबन विचित्र ठए ।-सूर। (३) न्यस्त व्यस्त मत्स्यबंधन-संशा पुं० [सं०] मछली पकड़ने की वंशी। करना । नष्ट करना । ईस करना । उ०—(क) सेन सहित मत्स्यमुद्रा-संवा स्त्री० [सं०] तांत्रिकों की एक मुद्रा जो सभी तब मान मथि बन उजारि पुर जारि । कसरे सठ हनुमान पूजाओं में आवश्यक होती है। इसमें दाहिने हाथ के छिले कपि गयेउ जो तव सुत मारि।-तुलसी । (ख) अध वक भाग र बाएँ हाथ की हथेली रखकर अंगूठा हिलाते हैं। शकट प्रलंब हनि मारेउ गज चाणूर । धनुष भंजिर दौरि यह मुद्रा अभीष्ट सिद्ध करनेवाली मानी जाती है। इसे पुनि कंस मथे मदमूर । केशव । (४) धूम धूम कर पता कूर्म मुद्रा भी कहते है। लगाना। बार बार श्रमपूर्वक ददना! पता लगाना । जैसे,- मत्स्य राज-संज्ञा पुं० [सं०] रोहू मछली। तुम्हारे लिये सारा शहर मय डाला गया, पर कहीं सुहाग मत्स्याक्षक-संशा ५० [सं० ] सोम लता। पता न लगा । (५) बार बार किसी क्रिया का करना । मस्याक्षी-संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) सोम लता । (२) माझी बुटी। किसी कार्य को बहुत अधिक बार करना। (३) गाडर दूब। संज्ञा पुं० मथानी । रई। 10-आजु गई हौं नंदभवन में मत्स्यायिनी-संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) जलपीपल । (२) दे. कहा करों दधि चैनुरी। बहु अंग चतुरंग छल मों कोनिक "मस्याक्षी"। दुहियतु धेनुरी। घूमि रहे जित तित दधि म्यना सुनत मत्स्यावतार-संज्ञा पुं० दे. "मत्स्य" (6)। मेघ वनि लाजै से । यरनौं कहा सदन की सोभा बैकुंठहु मास्यासन-संशा पुं० [सं०] तांत्रिकों के अनुसार योग का एक ! ते राजै री -सूर। आसन । । मथनियाँ*-संशा स्त्री० [हिं० मथानी ] वह मटका जिसमें दही मत्स्यासुर-कमा पुं० [40] पुराणानुसार एक असुर का नाम । स्था जाता है। उ०-दही दहेंडी दिगधरी भरी स्थनियाँ मत्स्येंद्रनाथ-संशा पुं० [सं०] एक प्रसिद्ध साधु और हठ योगी बारि। कर फेरति उलटी रई नई बिलोषनिहारि-विहारी। जो गोरखनाथ के गुरु थे। नेपाल में ये पमपाणि नामक मथनी-संज्ञा स्त्री० [हिं० मथना ] (१) बह मटका जिसमें दही बोधिसत्व के अवतार माने जाते हैं। या जाता है। मथनियाँ । उ०-(क) दूध दही के भोन मत्स्योदरी-संशा स्त्री० [सं०] व्यासजी की माता सत्यवती का ! चाटे नेकहु लाज न आई । माखन चोरि फोरि मथनी को एक नाम । मत्स्यगंधा। पीवत छाछ पराई।—सूर । (ख) डारे कहूँ मथनि बिसारे मत्स्योपजीवी-संशा पुं० [सं० मत्स्योपजीविन् ] धीवर । मल्लाह । कहूँघी को घड़ा बिकल बगारे फहूँ माखन मरा मही। मथन-संशा पुं० [सं०] (1) मथने का भाच या क्रिया । बिना। (२) दे. "मथानी" 1 (३) मथने की क्रिया । (२) एक अस्त्र का नाम । (३) गनियारी नामक वृक्ष। मथवाह-संज्ञा पुं० [हिं० माथा+वाह (प्रत्य॰)] हाथी के सिर पर बैठ वि० मारनेवाला । नाशक । उ०-मधुकैटभ-मथन भुर भौम | कर उसे हॉकनेवाला पुरुष । महावत । 30---दिष्टि तराहिं केशी भिदन कस कुल काल अनुसाल हारी । जानि युग जूप हीयरे भागे । अनु मधवाह रहै सिर लागे ।-आयसी । में भूप तपता में बहुरि करिहै कलुष भूमिभारी।-सूर । मथानी-संज्ञा स्त्री० [हिं० मथना ] काठ का बना हुआ एक प्रकार मथना-क्रि० सं० [सं० मथन वा मंधन ] (1) किसी तरल पदार्थ कादंरजिससे दही से मथकर मक्खन निकाला जाता है। को लकड़ी आदि से वेगपूर्वक हिलाना वा चलाना । इसके दो भाग होते है---एक खोरिया वा सिरा और दूसरा बिलोना । बिकना । जैसे, दही मथना, समुद्र मथना | हंसी । सोरिया प्राय: गोल, चिपटी और एक सम तथा