पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३४६

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मदालापी २६३७ मदगु अब आप अपने घर जाइए। ऋतुभ्वज जय अपने घर आया, और मदिरा होती है, जिसे अरिष्ट कहते हैं। यह क्वाथ से तो मदालसा के शरीरपात का समाचार सुनकर अत्यंत बनाई जाती है। धान वा चावल की मदिरा को सुरा, यव दु:खित हुआ। निदान वह सदा चिंतातुर रहा करता था।। की मदिरा को कोहल, गेहूँ की मदिरा को मधूलिफा, मीठे रम उसे शोकातुर देख उसके सखा नागराज अश्वतर के दो पुत्रों की मदिरा को शीधु, गुरु की मदिरा को गोदी और दाख ने अपने पिता से प्रार्थना की कि आप तप करके मदालसा की मदिरा को मर्षक कहते है। धर्मशास्त्रों में गौरी, पेष्टी, को फिर राजा को दे उनको दुःख से छुवावें । अश्वनर ने और माची को सुरा कहा गया है। वैद्यक ग्रंथों में भिनभिन्न शिव की तपस्या कर उनके वरदान से 'मदालसा' तुल्य प्रकार की मदिराओं के गुण लिम्ब है और उनका प्रयोग पुत्री प्राप्त की और राजकुमार ऋतुम्बज को अपने यहाँ भिन्न भिन्न अवस्थाओं के लिये लाभकारी बताया गया है। निमंत्रित कर उसे प्रदान किया। यह मदालसा परम विदुषी क्रि० प्र०-खींचना-पीना।-पिलाना। और ब्रह्मवादिनी थी। यह अपने पुत्रों को ब्रह्म-ज्ञान का (२) वासुदेव की एक स्त्री का नाम । (३) बाइस अक्षरों उपदेश करती हुई वेलाया करती थी। इसके तीन पुत्र के एक वर्णिक छंद का नाम जिसके प्रत्येक चरण में सात विकांत, सुबाहु और शत्रुमर्दन आबाल ब्रह्मचारी और विरक्त भगण और अंत में एक गुरु होता है। इसे मालिनी, उमा थे; और चौथा पुत्र अलर्क गद्दी पर बैठा, जिसे राजा ऋतुभ्वज और दिवा भी कहते हैं। उ.-तोरि शरासन शंकर के ने अपना उत्तराधिकारी बनाया और अंत को उसी पर राज्य-! शुभ सीय स्वयंवर माँझबरी। केशव । भार छोद सनीक वानप्रस्थाश्रम ग्रहण किया। मार्कंडेय-पुराण ! मदिराक्ष-वि० [सं०] [ मदिराक्षी ] जिसकी आँखें मद भरी में इसकी कथा विस्तार से आई है। हो । मस्त आँखांवाला । मत्तालोचन । मदालापी-संशा पुं० [सं०] [स्त्री० मदालापिनी ] कोकिल । मदी-संज्ञा स्त्री "मदि"। मदाह-संज्ञा पुं॰ [सं० ] कस्सूरी। मदीना-संज्ञा पुं० [अ० ] अरब के एक नगर का नाम । यहाँ मुस- मदि-संजा पी० [सं०] पटेला । हेंगा। लमानी मत के प्रवर्तक मुहम्मद साहब की समाधि है। मदिर-संज्ञा स्त्री० [सं० ] लाल खैर। मदीय-वि० [सं०] [स्त्री० माया ] मेरा । मदिरा-संज्ञा स्त्री० [सं०] (१) भबके से खींच वा सड़ाकर | मदीयून-संज्ञा पुं० [फा०] वह जो देनदार हो। कर्जदार । बनाया हुआ प्रसिद्ध मादक रस । वह अर्क जिसके पीने । ऋणी। से नशा हो । शराब । दारू । मद्य। मदीला-वि० [हिं० मद+ईला (प्रत्य०) ] नशे से भरा हुआ। नशीला। विशेष-मदिरा के प्रधान दो भेद है। एक वह जिसे आग! उ०-गजन मदीले चदि चले चटकीले है।-रघुराज । पर चढ़ाकर भबके से खींचते हैं जिसे अभिस्रवित कहते हैं। मदुकल-संज्ञा पुं० [१] दोहे के एक भेद का नाम जिसमें तेरह दूसरा बह जिसमें सड़ाकर मादकता उत्पन्न की जाती है गुरु और बाईस लघु मात्राएँ होती हैं। इसे गयंद भी कहते और जिसे पर्युषित कहते है। यह दोनों प्रकार की मदि है। उ.-राम नाम मणि दीप धरु जीह देहरीद्वार । राएं उत्तेजक, दाहक, कषाय और मधुर होती हैं वैदिक । तुलपी भीतर बाहिरै जो चाहमि उजियार । —तुलसी। काल से ही मादक रसों के प्रयोग की प्रथा पाई जाती है। मदोत्कट-वि० [सं०] मद गर्वित । मदोद्दत । सोम का रस भी, जिसकी स्तुति प्राय: सभी संहिताओं में संज्ञा पुं०-मत्त हाथी। है, निघोड़कर कई दिन तक ग्राहों में रखा जाता था जिससे मदोदन-वि० [सं० ] मत्त । मतवाला । खमीर उठकर उसमें मादकता उत्पन्न हो जाती थी। यजुर्वेद मदोद्धत-वि० [सं०] (१) मदोन्मत्त । प्रप्त । (२) घमंडी। में यवसुरा शब्द आया है, जिससे यह पता चलता है | मदोन्मत्त-वि० [सं०] मद में भरा हुआ। मदांध । कि यजुर्वेद के काल में यत्र की मदिरा खींचकर बनाई · मदोल्लापी-संज्ञा पुं० सं०] कोकिल । जाती थी । स्मृतियों में सुरा के तीन भेदों-गौडी, पेष्टी और : मदाव*-संशा स्त्री० [सं० मंदोदरी ] मंदोदरी । उ.-तुलसी माची-का निषेध देखा जाता है। पैद्यक में सुरा, वारुणी, मदोवै मीजि हाय धुनि माथ कह काह कान कियो न मैं शीधु, आसव,माध्वीक, गौड़ी, पेष्टी, मावी, हाला, कादंबरी केतो कह्यो कालि है।-सुलसी। आदि के नाम मिलते हैं। जटाधर ने मश्वीक, पानास, द्राक्ष, | मद्गु-संज्ञा पुं॰ [सं०] (1) एक प्रकार का जल पक्षी जिसकी खजूर, ताल, ऐक्षव, मेरेय, माक्षिक, टांक, मधूक, नारिकेलज, : लंबाई पूंछ से चोच तक ३२ से ३४ च तक होती है। अमविकारीरथ, इन बारह प्रकार की मदिराओं का उल्लेख इसके डैने कुछ पीलापन लिए होते हैं। पूँछ काली, चोंच किया है। इनमें खर्जर और ताल आदि पर्युषित और पीली और मुँह, कनपटी और गले के नीचे का भाग सफेद शेष अभिनवित है। इन दोनों के अतिरिक्त एक प्रकार की! तथा पैर काले होते हैं। यह भारतवर्ष के प्रायः सभी