पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३५३

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मध्यमिक मनःपर्याय अनुगार कोई आयस मान निकाला जाता है। मध्यज्योतिः-संशा स्त्री० [सं०] पाँच पाद का एक वैदिक छंद मध्यमिक-वि० [सं०] बीच का । मध्यम । जिसके पहले और दूसरे चरण में आठ आठ वर्ण तथा तीसरे मध्यमिका-संशा स्त्री० [सं० ] रजस्वला स्त्री। में ग्यारह, और पुन: चौथं और पांचवें में आठ आठ वर्ण मध्यमीय-वि० दे. "मयम" । होते हैं। मध्ययव-संज्ञा पुं० [सं० प्राचीन काल का एक परिमाण जो ६ मध्व-संश पुं० दे. "मधु"।। पीली मरयों के बराबर होता था। मध्यक-संज्ञा पुं० [सं० ] शहद की मक्खी। मध्यरेखा-संशा मी० [सं०] ज्योतिष और भूगोल शास्त्र में वह मध्वरिष्ट-संज्ञा पुं० [सं० ] घेयक के अनुसार एक प्रकार का रेग्बा जिसकी कल्पना देशांतर निकालने के लिये की जाती अरिष्ट जो संग्रहणी रोग में उपकारी माना जाता है। है। यह रेखा उत्तर-दक्षिण मानी जाती है और उत्तरी तथा मध्वल-संज्ञा पुं॰ [सं०] चार बार और बहुत शराब पीना। दक्षिणी ध्रुवों को काटती हुई एक वृत्त बनाती है। मध्वाचार्य-संशा पु० [सं०] दक्षिण भारत के एक प्रसिद्ध मध्यलोक-संज्ञा पुं० [सं०] पृथ्वी। वैष्णव आचार्य और भाव या मध्वाधारि नामक संप्रदाय मध्यवर्ती-वि० [सं०] जो मध्य में हो। बीच का। के प्रवर्तक जो बारहवीं शताब्दी में हुए थे। ये वायु के मध्यविवर्ण-संज्ञा पुं० [सं०] बृहत्संहिता के अनुसार सूर्य या अवतार माने जाते थे। पहले इनका नाम वासुदेवाचार्य चंद्र ग्रहण के मोक्ष का एक प्रकार जिसमें सूर्य या चंद्रमा था। इन्होंने अन्युत प्रेक्षाचार्य या श्रद्धानंद नामक एक का मध्य भाग पहले प्रकाशित होता है। कहते हैं कि इस महात्मा से दीक्षा ली थी और दीक्षा लेते ही विरक्त हो प्रकार के मोक्ष मे अन्न तो यथेष्ट होता है, पर वृष्टि अधिक गए थे। कहते हैं कि ये अपना गीता भाग्य तैयार करके नहीं होती। बदरिकाश्रम गए थे और वहाँ इन्होंने उसे वासुदेव के मध्यपूत्र-संशा पुं० दे. "मध्यरेखा"। अर्पण किया था। बासुदेव से इन्हें तीन शालिग्राम मिले मध्यस्थ-संज्ञा पु० सं०] (१) दो पालियों के झगड़े को निपटाने- थे जो इन्होंने तीन भित्र भिन मठों में स्थापित किए थे। वाला । बीच में पड़कर विवाद मिटानेवाला । (२) जोधोनों इन्होंने बहुत से प्राय रखे और अनेक भाष्य लिग्वे थे। पक्षों में से किसी पन में न हो। उदासीन । तटस्थ । उ० इनके सिद्धांत के अनुसार सब से पहले केवल नारायण थे; शशु मिश्र मध्यस्थ तीन ये मन कीन्हे बरियाई।-- और उन्हीं से समस्त जगत् तथा देवताओं की उत्पत्ति तुलसी। (३) बह जो अपनी हानि न करता हुआ दूपरों हुई। ये जीव और ईश्वर दोनों की पृथक् पृथक सत्ता का उपकार करता हो। मानते थे। इनके दर्शन का नाम पूर्णप्रज्ञ दर्शन है और इनके मध्यस्थता-संशा स्त्री० । सं०] मध्यस्थ होने का भाव या अनुयायी मध्वाचारी या मात्र कहलाते हैं। मध्वाधार-संज्ञा पुं० [सं०] मधुमक्खी का छत्ता । मध्यस्थल-संज्ञा पुं० [सं०] कमर । मध्वालु-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार के पौधे की जद जो खाई मच्या-संशा सी० [सं०] (8) काम्य शास्त्रानसार वह नायिका जाती है। यह स्वाद में मीठी होती है। वैधक में इसे भारी, जिसमें लजा और काम समान हो। (२) एक वर्ण वृत्त जिसके शीतल, रक्त-पित्त-नाशक और वीर्य वर्द्धक माना है। प्रत्येक चरण में सीन अक्षर होते है। इसके आठ भेद है। मध्वावास-सज्ञा पुं० [सं०] आम का पेड़। (३) बीच की उँगली। मध्वासव-संज्ञा पुं० [सं० } महुए की शराब । मावीक । मध्यान-संक्षा पं. दे. "मध्याह"। मध्वासनिक-संज्ञा पुं० [सं०] शराब बनाकर बेचनेवाला। मध्यान्ह-संशा पृ० दे० "मध्याह्न"। लाल । कलवार । मध्याग्कि-संज्ञा स्त्री० [सं० ] एक प्रकार की लता। मध्विजा-सशा स्त्री० [सं०] मदिरा । मद्य । शराब। मध्याहारिणी-संशा श्री० [सं० ] ललित विस्तर के अनुसार ६४ मध्चच-संशा स्त्री० [सं०] वेद की एक ऋचा। प्रकार की लिपियों में से एक प्रकार की लिपि मनः-संज्ञा पुं० [सं० मनस् ] मन । मध्याह्न-संशा पं० [सं०] दिन का मध्य भाग । ठीक दोपहर का मनःक्षेप-संज्ञा पुं० [सं०] मन का उद्वेग। समय । मनःपति-संज्ञा पुं० [सं०] विगु । मध्याहत्तर-संज्ञा पुं० [सं० 1 तीसरा पहर ( दिन का)। वो मनःपर्यानि-संज्ञा स्त्री० [सं०] मन से संकल्प विकल्प वा बोध पहर के बाद का समय । प्राप्ति करने की शक्ति। मध्य-क्रि० वि० [सं० मध्य ] बाबत । बारे में। संबंध में। मद्धे। मनःपर्याय-संज्ञा पुं० [सं०] जैन शास्त्रानुसार वह ज्ञान जिसमे वि० दे० "मद्धे"। चिंतित अर्थ का साक्षात् होता है। यह ज्ञान या और धर्म।