पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३५४

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मनःप्रसाद अंतराय नामक ज्ञानावरणों के दर होने पर निर्वाण या मुक्ति की प्राप्ति के पूर्व की अवस्था में प्राप्त होता है। इसमें जीवों को मन रूपी द्रव्य के पर्यायों का साक्षात् ज्ञान होता है। मनःप्रसाद-संज्ञा पुं० [सं० ] मन की प्रसन्नता । मनःप्रोति-संज्ञा स्त्री० [सं० ) मन की प्रसनता। मनःशास्त्र-संज्ञा पु० [सं०] बह शास्त्र जिसमें मन और मनो- विकारों का वर्णन हो । मनोविज्ञान । मनःशिल-संशा पुं० [सं०] मैनसिल । मनःशिला-संवा स्त्री० से. मैनमिल। मन-संज्ञा पुं० [सं० मनम् ] (१) प्राणियों में वह शक्ति वा कारण जिससे उनमें वेदना, संकल्प, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, बोध और विचार आदि होते हैं। अंत:करण । चित्त । विशेष-वैशेषिक दर्शन में मन एक अप्रत्यक्ष द्रव्य माना गया है। संख्या, परिणाम, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अप- रख और संस्कार इनके गुण बतलाए गए हैं और इसे अणु रूप माना गया है। इसका धर्म संकल्प-विकला करना बतलाया गया है तथा इसे उभयात्मक लिखा है; अर्थात् उसमें ज्ञानेंद्रिय और कर्मेंद्रिय दोनों के धर्म है। योगशास्त्र में इन चित्त कहा है। बौद्ध आदि से छठी इंद्रिय मानते हैं। वि० दे० “चित्त"। (२) अंतःकरण की घार वृत्तियों में ये एक जिसपे संकल्प विकल्प होता है। मुहा०—किपी मेमन अटकना चा उलझना-प्राति होना । प्रेम होना । मन आना वा मन में आना समझ पड़ना । चना । उ०—(क) मंगल मूरति कंचन पत्र को मैन रची मन आवत नीति है।-दास। (ख) और दीन बहु रतन , परवाना । योन रूप जो मनहि न आना ।—जायसी । मन का खराव होना-(१) मन फिरन। । (२) नाराज़ होना । अप्रसन्न होना । (३) रोगी होना । श्रीमार होना । मन टूटना-माहम छूटना । हताश होना । उ०—फूटो निज कर्म नहि' लूटो सुख जानकी को टूटो न धनुष टूट गए मन सबके-हनुमन्नाटक । मन बिगड़ना=(१) मन का हर जाना । मन का उदासीन है। जाना । (२) मतली आना । के भालूम होना (३) उन्मत्त होना । पागल होना । मन बदना- माहम बना । उत्साह बढ़ना । प्रोत्साहित होना । उ०- (क) सुनि मन धीरज भयल हो स्मैया राम । मन बदि रहल लजाय हो रमैया राम । -कबीर । (ख) आपस के नित के बैर से शत्रुओं का मन बढ़ा।-शिवप्रसाद । किसी का मन बुझत-किन्ना के मन की थाह लेना। उ०-तुम्हारा मन वृझने के लिये ही मैंने यह बातें कहीं। हरिभौध । मन का बुझना वा मानना-मन में शांति होना। मन में , धेयं आना । मन मानना-मन में शांति होना । संतोष होना । जैसे,-हमारा मन नहीं मानता; हम उन्हें देखने अवश्य जायगे । मन का मारा=खिन्न हदय । दुखा चित्तवाला । मन का मैला-मन का खोटा । कपटी । पाता । मन हरा होना-मन प्रसन्न होना । चित्त प्रसन्न रहना। मन की मन में रहना इच्छा पूरी न होना । जैसे,---मन की मन में ही रह गई और वे चले गए। मन के लड्डू खाना-ऐसी बात को सोचकर प्रसन्न होना, जिमका होना असंभव वा दुःसाध्य हो । व्यर्थ की आशा पर प्रसन्न होना । उ.-विरह से पागल प्रेमी लांग सन के लड्डू से भूस्त्र बुझा लेते हैं।-हरिश्चंद्र । मन खोलना=दुराव छोकना । निष्कपट होना । शुद्ध-हृदय होना । न चलना-इच्छा होना। प्रवृत्ति होना । जैसे,-बीमारी में किसी चीज़ पर मन नहीं चलता । किसी का मन टटोलना बा मन को टटोलना:-किमी के मन की थाह लेना । किसी की इच्छा को जानना। जैसे,--- भाओ, कुछ आमोद प्रमोद की बातें करके उसका मन टटोलें । मन टोलना=(१) मन का चलायमान होना । मन का चंचल होना । (२) लालच उत्पन्न होना । लोभ आना । मन होलाना=(१) मन में चंचलता उत्पन्न करना । मन चलाय- मान करना । उ०-भोजन करत गयो कर रमिनि सोई देहु जो मन न बोलावै । सूरदास प्रभु जब निधिदाता जापर कृपा सोई जन पावै ।--सूर । (२) लालन उत्पन्न करना । लाभ दिलाना । अपना मन डोलना:- लाल व करना । मन देना (१) जी लगाना । भन लगाना। उ.- (क) एक बार जो मन देह मेवा । यहि फल प्रपन हा देवा ।-जायसी । (ख) रघुपति पुरी जनमु तव भयऊ । पुनि ते मन सेवा मम दयऊ ।----तुलसी । (२) ध्यान दना । किमी को मन देना--किमी पर आसक्त मेना। माहित होना । किसी पर मन धरना-ध्यान देना । मन लगाना । उ०--(क) बाल भयो अपराध आर लखि स्तुति करत खां । सूरदास स्वामी मनमोहन तामें मन न धरे। -सूर (ख) जोई भक्ति भाजन मन धरे। खोई हरियों मिलि अनुसरे । --- लल्लू । मन तोड़ना वा हारना भग्ना- त्माह होना । साहस छोड़ना । उ०--अंग दिनु है सबै नहीं एको फबै सुनत देवत जय कहन लोरे । कई रसना सुनत श्रवन देखत नयन सूर सब भेद गुनि मनहि तोरे।—सूर । किसी से मन फट जाना या फिर जाना भृणा होना । नारत होना । मन फिराना-दे० "मन फेरना" । मनफेरना--चित्त को हटाना । मन को किना और से अलग करना । प्रवृत्ति बद- लना । उ०-फिरि फिरि फेरि फेरि फेयो में हरी को मन फेरे फिरी पुनि पुनि भाग की भली घरी। केशव । मन बढ़ाना-साहस दिलाना । उत्साह बढ़ाना । प्रान्साहित करना ।