पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३५८

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मनमौजी २६४२ मनसा निहोरे खुले करम । तुमही भजे पावही धरम । (३) एक हियाव न के सका सूर काठ तस खाय ।--जायसी । (ख) प्रकार का सदाबहार वृक्ष जो बरमा, जात्रा आदि देशों में। पवन बाँध अपसरहिं अकासा । मनसहि जहाँ जाहि तह होता है। यह सीधा और ऊँचा होता है। इसकी लकड़ी। बासा ।—जायसी (ग) याही ते शूल रही शिशुपालहि । साफ होती है और इस पर रंग खूब खिलता है। इसके सुमिरि पछताति सदा वह मान भंग के कालाहि । दुलहिनि फूल बहुत सुगंधित होते है जिनसे इतर निकाला जाता है। कहति दौरि दीजहु द्विज पाती नंद के लालाहि । घर सुबरात इस इतर को इलंग कहते हैं और यूरोप में इसकी बहुत खुलाइ बड़े हित मनसि मनोहर बालहि । --सूर । (२) खपत होती है। इसे अब लोग बंगाल में भी बागों में संकल्प करना ।रद निश्चय या विचार करना । उ.- लगाते हैं। यह बीजों से उगता है। जोई चाहै सोई ले मने नहिं कीजै यह शिव के चढ़ाइये मनमौजी-वि० [हिं० मन+मौज ] मन की मौत के अनुसार ! को मनस्यो कमल है।-रखुनाय । (३) हाथ में जल काम करनेवाला । मनमाना काम करनेवाला। लेकर संकल्प का मंत्र पढ़कर कोई चीज़ दान करना। मनरंज*--वि० [हिं० मन+रजना ] मनोरंजन करनेवाला । मनो- । मनसय-संज्ञा पुं० [अ०] (1) पद । स्थान । उ.--पका मतो रंजक । उ.-तुमसों कीजै मान क्यों बहु नाहक मन । करि मलिच्छ मनसब छोदि मका के मिसि उतरत दरि- रंज। बात कहत यों बाल के भरि आये रंग कंज।-! याद है।-भूषण । मतिराम।

यौ०-मनसबदार।

मनरंजन-वि० [हिं० मन+रंजना ] मनोरंजन करनेवाला। (२) कर्म । काम । (३) अधिकार । (५) वृक्ति । मन को प्रसन्न करनेवाला । मनोरंजक । उ०.--(क) भुंगी मनसबदार-संशा पुं० [फा० ] बह जो किसी मनसब पर हो। री भज चरण कमल पद जहँ नहि निशि को त्रास । जाँ उच्चपदस्थ पुरुष । ओहदेदार । उ०--मसन की कहा है बिधु भानु समान प्रभा नख खो वारिज सुग्व-रास । जिहि । मतंगनि के माँगिबे को मनसबदारनि के मन ललकत किंजल्क भक्ति नत्र लक्षण कास ज्ञान रपएक । निगम हैं।-मतिराम । सनक शुक नारद शारद मुनि जनमंग अनेक । शिव बिरंचि मनसा-संशा स्त्री० [सं०] एक देवी का नाम । पुराणानुसार यह खंजन मनरंजन छिन छिन करत प्रवेश । अखिल कोश तह जरत्कारु मुनि की पत्नी और आम्तीक की माता थी तया बसत सुकृत जन परगट श्याम दिनेश । सुनि मधुकरी भरत कश्यप की पुत्री और वासुकी की बहिन थी। तजि निर्भय राजिव वर की आस । सूरज प्रेस सिंधु में । मंशा स्त्री० [सं० मानस वा अ० मनशा] (1) कामना । इच्छा। प्रफुलित तहँ चलि करे निवास 1-सूर । (ख) थिरकत उ.---(क) तन सराय मन पाहरू मनमा उतरी आय। सहज सुभाव सौ बलत चाल गत सैन । मनरंजन रिशवार फोउ काहू को है नहीं सब देवे ठोंक बजाय । कबीर । के खंजन तेरे नैन । रसनिधि। (ख) छिन न रहै नंदलाल यहाँ दिनु जो कोउ कोटि सिखावे । संज्ञा पुं० दे० "मनोरंजन"। सूरदास ज्यों मन ते मनसा अनत कहूँ नहिं जावै। सूर। मन लाडु*-संशा पुं० दे० "मनमोदक"। उ.-धर्म अर्थ कामना ! (२) संकल्प । अध्यवसाय । इरादा । उ.--(क) देव नदी सुनावत सब सुख मुक्ति समेत । काकी भूख गई मन लान् । कहूँ जोजन जानि किए मनसा कुल कोटि उधारे।-तुलसी। सो देखा चित चेत--सूर । (ख) मानहुँ मदन कुंदुभी दीनही । मनसा विश्व विजय कहूँ मनयाँ-संक्षा पुं० [देश॰] नरमा । देव कपास रामकपास । कीन्ही ।-सुलसी। (३) अभिलाषा । मनोरथ । उ.- (क) मनधाना-क्रि० स० [हिं० मानना का प्रर० ] मानने का प्रेरणा मनसा को दाता कहै श्रुति प्रभु प्रत्रीन को।-सुलसी। र्थक रूप । मानने के लिये प्रेरणा करना । किसी को मानने (ख) कहा की जाको राम धनी । मनसा नाथ मनोरथ पूरण में प्रवृत्त करना । उ०-भावत ही की सखी सों भटू मम सुख-निधान जाको मौज धनी ।—सूर । (1) मन । उ.-- भावते भावती को मनवायो।-रघुनाथ । (क) विफल होहिं सब उद्यम ताके। जिमि परद्रोह निरत क्रि० स० [हिं० मनाना ] मनाने का काम दूसरे से कराना। मनसा के ।-तुलसी। (५) बुद्धि । उ-युगल कमल दूसरे को मनाने में प्रवृत्त करना। सों मिलत कमल युग युगल कमल ले संग । पाँच कमल मनशा-संज्ञा स्त्री० [अ० 1 (1) इच्छा । विचार । इरादा । (२) मधि युगल कमल लखि मनसा भई अपंग। -सूर । (६) तात्पर्य । मतलख । अर्थ। अभिप्राय । तारपर्य । प्रयोजन । उ०-प्रभु मनसहि लव- मनसना*-क्रि० स० [हिं० मानस, सं. मनस्यन् ] (1) इच्छा लीन मनु चलत बाजि छवि पाव । भूषित उगन तदित करना । विचार करना । इराना करना । उ०-(क) धन जनु वर बरहि नचाच ।-तुलसी। भंवर जो मनसा मान सर लीन्ह कमल रस भाय । जुन | वि० (6) मन से उत्पन्न । (२) मन का। उ०-धर्म