पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३६२

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मनुषी २६५३ मनूरी सार्षिक । 30---माप मोर मनुष है अति सुजान । अंधा नाम जो मनु-प्रणात है। कहा जाता है कि पहले मनुस्मृति कूटि कूटि कर बिहान-कबीर । में एक लाख श्लोक थे। फिर उसका संक्षेप बारह हजार मनुषी-संशा स्त्री० [सं०] स्त्री। श्लोकों में किया गया और अंत को उसका संक्षेा चार हजार मनुष्य-संज्ञा पुं० [सं०] जरायुज जाति का एक स्तनपायी प्राणी श्लोकों में किया गया । आज कल की मनुस्मृति में ढाई जो अपने मस्तिष्क या धुद्ध बल की अधिकता के कारण हजार से कुछ ही अधिक श्लोक मिलते हैं। यह भृगु-प्रोक्त सब प्राणियों में श्रेष्ठ है। आदमी । नर। कहलाती है और इसमें बारह अध्याय हैं। इसमें सृष्टि की विशेष-मनुष्य महाभूत कहा गया है। प्राचीन ग्रंथों में उत्पत्ति, संस्कार, निरय और नैमित्तिक कर्म, आश्रम धर्म, सृष्टि के आदि में प्रायः सब जीव जंतुओं की उत्पत्ति एक राजधर्म, वर्णधर्म, प्रायश्चिस आदि विषयों का वर्णन है। साथ बताई गई है। पर आधुनिक प्राणि-विज्ञान के अनु इसके अतिरिक्त एक नारद प्रोक्त मनु संहिता का भी पता सरर मूल अगुजीवों से क्रमश: उमति प्राप्त करते हुए चलता है; पर वह पूरी नहीं मिलती। मानव धर्मशास्त्र । एक के पीछे दूसरे उमत जीव होते गए हैं। जैसे बिना मनुहार-संज्ञा स्त्री० [हिं० मान+हरना] (१) वह बिनती जो सवाले जीवों से रीढ़वाले अंडज जीव हुए। फिर उन्हीं किसी का मान छुड़ाने वा क्रोध शांत करके उसे प्रसन्न करने से जरायुज हुए। जरायुजों में सब के पीछे किंपुरुष वर्ग के के लिये की जाती है। मनोभा । खुशामद । उ०—(क) बंदर या वनमानुस हुए। बनमानुसों से होते होते अंत में मारो मनुहरन भरी गारिउ भरी मिठाहिवाको अति अन- मनुष्य हुए। वैज्ञानिकों ने मनुष्य को पाँच प्रधान जातियों खाहटौ मुसुकाहट बिनु नाहिं ।-बिहारी । (ख) तुम न में धौटा है-(१) काकेशी, जिसके अंतर्गत आर्य और बिहारी नेकु मानो मनुहारी हम पार्य परि हारी अरु करि असुर (सामी) हैं। (१) मंगोल (चीन, जापान आदि हारी नहियाँ।-तोष। के पीले लोग)। (३) हब्शी। (४) अमेरिकन । और मुहा०—किसी की मनुहार करना=विनती करना । खुशामद (५) मलाया। करना । मनाना । उ०—(क) तुम्हरे हेतु हरि लियो अवतार । पर्या-मानुष । मनुज । मानव । नर । द्विपद । अब तुम जाइ करो मनुहार ।-सूर । (ख) दुसह रोष मनुष्यकार-संक्षा पुं० [सं०] पुरुषकार । उद्योग । प्रथम । मूरति भूपति अति नृपति निकर पयकारी । क्यों सौंपेज मनुष्यगति-संज्ञा स्त्री० [सं०] जैन शास्त्रानुसार वह कर्म जिसके सारंग हारि हिय करिहै बहु मनुहारी । तुलसी । (ग) करने से मनुष्य बार बार मरकर मनुष्य ही का जन्म पाता कहत रुद्र मन माहि विचारि। अब हरि की कं जै मनु- है। ऐसे कर्म पर-स्त्रीगमन, मांस-भक्षण, चोरी आदि बत हारि। लल्लू । (१) जो मेरो कृत मानहु मोहन करि लाए गए हैं। लाओं मनुहारि । सूर रसिक तबही पै बनिहीं मुरली सर्कन मनुष्यता--संशा स्त्री० [सं० (७) मनुष्य का भाव । आदमीपन सँभारि ।-सूर । (२) विनय । प्रार्थना । उ-(क) (२) दया भाव । चित्त की कोमलता। शील। (३) सभ्यता, तापसी करि कहा पठवति नृपनि को मनुहारि । बहुरि तेहि शिष्टता। व्यवहार ज्ञान । तमीज़ । आदमीयत । विधि आइ कहिहै साधु कोउ हितकारि । तुलसी । मनुष्यत्व-संज्ञा पुं० [सं०] मनुष्यता। आदमीयत । (ख) सबै करति मनुहारि ऊधो कहियो हो जैसे गोकुल मनुष्यधर्मा-संज्ञा पुं० [सं० मनुष्यधर्मन् ] कुवेर । आने-सूर । (३) सत्कार | आदर । उ०-सौह किये है मनुष्ययन-संज्ञा पुं० [सं० ] अतिथि का आदर सम्मान । अप्ति-: न सौं हैं करे मनुहार करेहून सूध निहारे ।-केशव । थियज्ञ । नृयज्ञ। मनुहारना -क्रि० स० [हिं० मान+हरना ] (१) मनाना । मनुष्यरथ-संशा पुं० [सं०] वह स्थ जिस्से मनुष्य खींचते हैं। खुशामद करना । उ०—(क) पूजा करेउ बहुत मनुहारी । नर-रथ। बोले मीठे बचन विचारी।-सबलसिंह । (ख) के पटुता मनुष्यराशि-संज्ञा स्त्री० [सं०] कन्या राशि। परवीन सिया मनुहरि बाल कहै मन माने ।-प्रताप । (२) मनुष्यलोक-संज्ञा पुं० [सं०] मर्त्यलोक । भू लोक । विनय करना । प्रार्थना करना । उ०—निग्रहानुग्रह जो करे मनुसाई -संज्ञा स्त्री० [हिं० मनुस+आई ] (1) पुरुषार्थ : अरु देव आशिष गारि । सो सबै पिर मानि लीजै सर्वथा पराक्रम । बहादुरी । उ.-(क) साया मृग के बाद मनु मनुहारि ।केशव । (३) सत्कार करना । आदर करना । साई। साखा ते साखा पर जाई। तुलसी। (ख) जो . उ.-सुरभी ऐन कुंभ सम धारै । दिनि धेनु सरिस अस करउँ न तदपि बड़ाई। मुयेहि बधे कछु नहि मनु-: मनुहार। पन्नालाल 1 (४) खुशामद करना। साई।-तुलसी । (२) मनुष्यता । आदमीयता : मनूरी-संज्ञा स्त्री० [अ० मुनौवर ] एक प्रकार को बुकनी जो मनुस्मृति-संज्ञा स्त्री० [सं०] धर्म शास्त्र के एक प्रसिद्ध ग्रंथ का मुरादाबादी कलई के बर्तनों को उन करने में काम भाती ६६४