पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मनोरमा नमोव्यापार संज्ञा पुं. सखी छंद के एक भेव का नाम । इसके प्रत्येक करत अकाज भयो आजु लागि, चाहै चार चीर पैलहै न चरण में चौदह मात्राएँ होती है और ५, ४ और ५ पर दूक टाट को।-तुलसी। विराम होता है । इसका मात्राक्रम २+३+२+२+३+२ है मनोरिया-संशा स्त्री० [हिं० मनोहर एक प्रकार की सिकड़ी की और तीसरी और दूसरी मात्रा सदा लघु होती है । उ० जंजीर जिसकी कड़ियों पर चिकनी चपटी दाल जड़ी रहती जानकी नाथै, भजो रे । और सब धंधा तजो रे । सार है है और जिसमें मुंघरुओं के गुच्छे लगातार बंदनवार की तरह जग में जु येही । को प्रभ सों जन सनेही। लटकते हैं। यह जंजीर स्त्रियों की साड़ी वा ओढनी के मनोरमा-संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) गोरोचन। (२) सात सरस्वतियों किनारे पर उस जगह टॉकी जाती है जो ओढ़ते समय 6.क में से चौथी का नाम । (३) बौद्ध धर्मानुम्मार बुन्द्र की एफ सिर पर पड़ता है। यूं घट काढ़ने पर यह जंजीर मुँह और शक्ति का नाम । (४) छंदोमंजरी के अनुसार एक छंद खिर के चारों ओर आ जाती है। जिसके प्रत्येक चरण में दस वर्ण होते हैं जिनमें पहला, मनोवती-संटन स्त्री० [सं०] (1) पुराणानुसार मेरु पर्वत पर के दूसरा, तीसरा, सातवाँ और नवा वर्ण लघु और शेष गुरु एक नगर का नाम । (२) चित्रांगद विद्याधर की कन्या होते हैं। (५) महाकवि चंद्रशेखर के अनसार भार्या के का नाम । ५७ भेदों में एक जिनमें १२ गुरु और ३३ लघु वर्ण होते हैं। मनोवांछा-संज्ञा स्त्री० [सं०] इच्छर अभिलाषा । स्वाहिश । (६) दस अक्षर के एक वर्णिक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक मनवांछित-वि० [सं०] इच्छित । मन मांगा। अथेच्छ । चरण में नगण, रगण और अंत में गुरु होता है। उ- जैसे,—इससे आपको मनोवांछित फल मिलेगा। सहत मुक्ति पाप हो छमा। (७) केशव के मतानुसार मनोविकार-संज्ञा पुं० [सं०] मनकी वह अवस्था जिसमें किसी धौदह अक्षरों का एक वर्णिक वृत्त जिसके प्रत्येक पाद में प्रकार का सुखद या दु:खद भाव, विचार या विकार उत्पन्न ४ सगण और अंत में दो लघु होते हैं। उ.-यह शारन होता है। जैसे, राग, द्वेष, क्रोध, दया आदि चित्तवृत्तियों। पठये नृप कानन । (6) केशव के मतानुसार दोधक छेद चित्त का विकार । का एक नाम जिसके प्रत्येक चरण में ४ भगण और दो विशेष मनोविकार किसी प्रकार के भाव या विचार के गुरु होते हैं। (९) सूदन के मतानुसार दस अक्षरों के कारण होता है और उसके साथ मन का लक्ष किती पदार्थ एक वर्णिक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में तीन या बात की ओर होता है । जैसे,—किमी को दुबी देवकर तगण और एक गुरू होता है। उ०-बीते कछु योस ही दया अथवा अत्याचारी का अत्याचार देखकर क्रोध का उत्पन्न में जहाँ। (१०) मार्कंडेय पुराणानुसार इंदीवर नामक एक होना । जिस समय कोई मनोविकार उत्पन होता है, उस गंधर्व की स्त्री का नाम समय कुछ शारीरिक विक्रियाएँ भी होती है; जैग्य, रोमांच, मनोरा-संज्ञा पुं० [सं० मनोहर ] दीवार पर गोबर से बनाए हुए स्वेद, कंप आदि। पर ये विक्रियाएँ साधारणतः इतनी सूक्ष्म चित्र जो कार्तिक के महीने में दिवाली के पीछे बनाए जाते होती है कि दूसरों को दिखाई नहीं देती। हाँ, यदि मनो- है। स्त्रियाँ और लड़कियाँ इन्हें रंग बिरंग के फूल-पत्तों से विकार बहुत तीव्र रूप में हो, तो उसके कारण होनेवाली सजाती है, प्रतिदिन सायंकाल को पूजती हैं और दीपक शारीरिक विक्रियाएँ अवश्य ही बहुत स्पष्ट होती है और जलाकर गीत गाती जाती हैं। सिंझिया। लोदिया । उ.--- बहुधा मनुष्य की आकृति से ही उसके मनोविकार का जेहि घर पिय सो मनोरा पूजा। मोकहुँ विरह, सवति स्वरूप प्रकट हो आता है। दुःख दूजा ।-जायसी। क्रि० प्र०---उठना । यौ०-मनोरा झमक-एक प्रकार का गीत जिसे स्त्रियां फागुन मनोविज्ञान-संज्ञा पुं० [सं०] वह शाखा जिसमें चित्त की वृत्तियों में गाती है और जिसके अंत में यह पद आता है । का विवेचन होता है। वह विज्ञान जिसके द्वारा यह जाना उ०—(क) कहूं मनोरा झमक होई । कर औ फूल जाता है कि मन प्य के चित्त में कौन सी वृत्ति कब, क्यों लिये सब कोई ।--जायसी । (ख) गोकुल सकल म्या और किस प्रकार उत्पन्न होती है। चित्त की वृत्तियों की लिनी हो घर रखें. फाग, मनोरा भूमक रे। तिन में मीमांसा करनेवाला शास्त्र।। श्रीराधा लादिली हो जिनको अधिक सुहाग, मनोरा : मनोवसि-संज्ञा स्त्री० [सं०] चित्त की वृत्ति । मनोविकार । वि. झमक रे।-सूर । दे. "मनोविकार"। मनोराज-संशा पुं० [सं० मनोराज्य ] मानसिक करना । मन की मनोवेग-संशा पुं० [सं०] मन का विकार । मनोविकार । कल्पना । उ०-गको न साजन बिराग जोग जाग मनोव्यापार-संज्ञा पुं० [सं०] मन की क्रिया । संकल्प-विकल्प। जिय, काया नहि छोड़ देत ठाठिदी कुठाट को। मनोराज विचार।