पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३६५

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मनोसर २६५६ मम मनोसर*-संज्ञा पुं० [सं० मन ] मन की वृत्ति । मनोविकार । मन्ना-संज्ञा पुं० [ देश० ] शहद की तरह का एक प्रकार का उ.-सर्व मनोसर जाय मरि जो देखै तस चार । पहले मीठा निर्यास जो याँस आदि कुछ विशेष वक्षों में से सो दुःख बरनि के बरनौं वहक सिंगार । निकलता है और जिसका व्यवहार ओषधि के रूप में मनोहर-वि० [सं०] [ संशा मनोहरता ] (१) मन हरनेवाला। होता है। चित्त को आकर्षित करनेवाला । (२) सुदर । मनोज्ञ। मन्मथ-संज्ञा पुं० [सं०] (१) कामदेव । (२) कपित्य । कैथ । संज्ञा पु. (1) छप्पय छंद के एक भेद का नाम जिसमें १३ (३) काम-चिंता । (१) साठ संवत्सरों में से उनतीसवें गुरु, १२६ लघु, १४९ वर्ण और १५२ मात्राएँ अथवा १३ संवत्सर का नाम । गुरु, १२२ ल्यु, १३५ वर्ण और ११८ मात्राएँ होती हैं । (२) . मन्मथकर-संज्ञा पुं० [सं० 1 कुमार के एक अनुचर का नाम । एक संकर राग का नाम जो गौरी, मारवा और त्रिवण के मन्मथलेख-संज्ञा पुं० [सं० } प्रेमपत्र । मिलने से बना है। (३) कुंद पुष्प । (४) सुवर्ण । सोना। मन्मथानंद-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का आम जिसे महाराज- मनोहरता-संशा स्त्री० [सं०] मनोहर होने का भाव । सुदरता। चूत भी कहते है। मनोहरताई*-संशा स्त्रा० स० मनोहरता ] सुदरता। मनोहरता। : मन्मथालय-संशा पुं० [सं० ] (1) आम का पेव । (२) कामियों उ.-(क) मगल सगुन मनोहरताई। रिधि सिधि सुख के मनोरथ पूर्ण होने को जगह। प्रेमी और प्रेमिका के मिलने संपदा सुहाई।--तुलसी। (ख) किल.कनि नटनि चलनि का स्थान । विहारस्थल । चितवनि भजि मिलान मनोहरतैया। मनि खंभनि प्रतिधि मन्मथी-वि० [सं० मन्मथिन् ] कामी । कामुक । झारक बिछलांकहै भरि अंगनया । —तुलसी। मन्यका-संज्ञा स्त्री । सं० ] गले पर की एक शिरा या नसतो मनोहरा-संशा प्रा. [सं०] (1) जाती पुष्प । (२) स्वर्ण जुही। पीछे की ओर होती है । मन्या । सोनजुही । (३) निशिर की माता का नाम । (४) एक मन्या-संज्ञा स्त्री० [सं०] गले की एक शिरा या नस । अप्सरा का नाम । मन्यका। मनोहरी-संज्ञा 41. [ हिं० मनोहर ] कान में पहनने की एक मन्यास्तंभ-संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग का नाम जिसमें गले पर प्रकार की छोटी बाली। की मन्या शिरा कड़ी हो जाती हैं और गरदन इधर उधर मनाहारी-वि० [सं० मनहारिन् ] । खा. मनोहारिणी ] मनोहर । नहीं घूम सकती। चिसाकर्षक । सुदर। मन्यु-संज्ञा पुं० [सं०] (१) स्तोत्र । (२) कर्म। (३) शोक। (४) मनहादी-वि० [सं० मनोहादिन् ] [ स्त्री मनोहादिना ] (१) मन याग । (५) कोष । क्रोध । (६) दीनता । (७) अहंकार । को प्रसन्न करनेवाला । दिल खश करनेवाला । (२) मनो. (८) शिव । (९) अग्नि । (१०) भागवत के अनुसार वितथ हर । सुदर। राजा के पुत्र का नाम। ममोहा-संज्ञा स्त्री० [सं० ] मनःशिला । मनसिल। । मन्युदेष-संज्ञा पुं० [सं०] (1) क्रोध का अभिमानी देवता । (२) मनौती -संशा स्त्री हि मानना+औता (प्रत्य०)] (१) असंतुष्ट को एक अपि नाम । संतुष्ट करना । मनाना । मनुहार । उ०-कभी गालियां देता। मन्युपर्णी-संज्ञा स्त्री० [सं० । भेकपर्णी । मडूकपर्णी । था कभी धमकाता था, कभीइनाम का लालच दिग्खलाता था, मन्वंतर-संज्ञा पुं० [सं०] (1) इकहत्तर चतुर्युगी का काल । कभी मनौती करता था; पर कोठरी का दरवाजा फिपी ने न ब्रह्मा के एक दिन का चौदहवाँ भाग । वि० दे० "मनु"। खोला ।-शिवप्रसाद । (२) किसी देवता की विशेष रूप से (२) दुर्भिक्ष । अकाल । पूजा करने की प्रतिज्ञा वा संकल्प | मानता । ममत। मन्तरा-संशा स्त्री० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का क्रि० प्र०-उतारना ।—करना ।-बढ़ाना ।-मानना। उत्सव जो आपाद शुक्ल दशमी, श्रावण कृष्ण अष्टमी और मनत-संज्ञा स्त्री० [हिं० मानना ] किसी देवता की पूजा करने की भाद्र शुक्ल तृतीया को होता था। वह प्रतिज्ञा जो किसी कामना विशेष की पूर्ति के लिये की मनपाच-संज्ञा पुं० [सं० ] धान्य । जाती है। मानता। पनौती । उ०-(बाबर ने) मन्नत | मन्होला-संज्ञा पुं॰ [देश॰] तमाल । मानी कि भार सांगा पर फतह पाऊँ, फिर कभी शराबन मम-सर्व० [सं० अहं का पठी एकवचन रूप] मेरा वा मेरी । उ. पाऊँ और डाढ़ी बढ़ने ढूं।-शिवप्रसाद । -(क) साई यो मति जानियो प्रीति घट मम चित्त । मरूँ मुहा०-मन्नत उतारना या पदाना-पूजा को प्रतिशा पूरी तो तुम सुमिरत माँ जीवत सुमि नित्त। कबीर । (ख) करना । मन्नत मानना=यह प्रतिज्ञा करना कि अमुक कार्य नील सरोरुह श्याम, तरुन अरुन वारिज नयन । करहु सो के हो जाने पर अमुक पूजा की जायगी । मम उर धाम, सदा क्षीर-सागर सयन ।-तुलसी । (ग)