पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३८९

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मस २६८० मसजिद मस-संज्ञा स्त्री० [सं० मसि ] स्याही रोशनाई। उ०-सात स्वर्ग दस्सा लगा रहता है। इससे रगड़ने से धातुओं पर चमक को कागद करई । धरती समुद दुई मस भरई।—जायसी। आ जाती है। प्रायः तलवारें आदि भी इसी से साफ की संज्ञा पुं० [सं० मशक ] मरछद । मस । जाती हैं। उ.-(क) गुरु सिकलीगर कीजिये, ज्ञान मस- संज्ञा स्त्री० [सं० इमश्र ] मोड निकलने से पहले उसके स्थान कला देह । मन की मैल बाइ कै, सुचि दर्पण कर ले। पर की शेमावली । उ.--उनके भी उगती मसों से रस का -कबार । (ख) शिष्य खाँद गुरु मसकला, पढ़े शब्द खर- टपका पड़ना और अपनी परछाई से अकड़ना इत्यादि। सान । शन्द सहे सन्मुख रहे, निपजे शिष्य सुजान।- शिवप्रसाद। कबीर । (२) सैकल वा सिकली करने की क्रिया। महा.-मस भीजना-मूछों का निकलना आरंभ होना। मूछों। मसकली-संज्ञा स्त्री० दे० "मसाला"। की रेखा दिखाई पड़ने लगना । उ०-उठत बैस मस भीजत | मसका संज्ञा पुं० [फा०] (1) नवनीत । मक्खन । न । (२) सलोने सुठि सोभा देखवैया विभु वित्त ही विकै हैं। ताजा निकला हुआ धी। (३) दही का पानी। (४) रासाय- संज्ञा पुं० दे. "मसा"। निक परिभाषा में, यधा हुआ पारा। (५) चूने की बरी का मसक-संज्ञा पुं० [सं० मशक ] मसा। मछ। डॉस । उ०- वह चूर्ण जो उस पर पानी छिड़कने से हो जाता है। (६) मसक समान रूप कपि धरी। कहि चलेउ सुमिरि कायस्थ । (सुनार) मन हरी|-तुलसी। | मसकीन*-वि० [अ० मिसान ] (1) गरीब । दीन । बेचारा। संज्ञा स्त्री. दे. "मशफ" । उ०-छूछी मसक पवन पानी उ.-है मसकीन कुलीन कहावौ तुम योगी संन्यासी । ज्यों नेसेई जन्म विकारी हो।-सूर। ज्ञानी गुणी शूर कवि दाता ई मत्ति काहु न नासी ।- संज्ञा स्त्री० [ अनु० ] मसकने की क्रिया या भाव । कबीर । (२) साधु संत । उ०-क्या मूबी भूमिहि शिर मसकत -संशा स्त्री० दे. "शक्त"। उ.-तुम कब मो सों नाये क्या जल देह नहाये । खून कर मसकीन कहा गुण पतित उधाग्यो । काहे को प्रभु विरह बुलावत बिन मसकत | को रहै छिपाये ।—कबीर । (३) दरिद्र । कंगाल । (४) को सान्यो ।-सूर। भोला । (५) सुशील। मसकना-क्रि० स० [ अनु० ] (1) खिंचाव वा दयाव में डाल- | मसखरा-संशा पुं० [अ० } (१) बहुत हँसी मज़ाक करनेवाला । कर कपड़े को इस प्रकार फाइना कि बुनावट के सब तंतु टूट हँसीव । उट्टबाज़ । उ.-कविरा यह मम मसखरा कहूँ तो कर अलग हो जाएँ। (२) किसी चीज़ को इस प्रकार दबाना माने रोस । जा मारग साहब मिलै तहाँ न चाल कोस । कि वह बीच में से फट जाय या उसमें दरार पर जाय । -कधीर । (२) विदूषक । नकाल । उ.-महाबली बालि को दस्तु दलकत भूमि तुलसी उछरि मसखरापन-संज्ञा पुं० [अ० मसखरा+पन (प्रत्य॰)] दिल्लगी। सिंधु मेरु ससकतु है।-तुलसी । (३) जोर से दबाना । ठठोली । हँसी । ठट्ठा । उ०-मुझको तो आपके मुसाहयों जोर से मलना । उ०—सो सुख भाषि सकै अब को रिस में सिवाय मसखरापन के और कोई लियाकत नहीं मालूम कै कसकै मसकै छतियाँ छिये ।—पनाकर । होती।-श्रीनिवासदास । संयां० कि०-डालना।-देना। मसखरी-संज्ञा स्त्री० [फा० मसखरा+ई (प्रत्य०)] दिल्लगी।सी। कि० अ० (१) किसी पदार्थ का दबाव या खिंचाव आदि ___ मज़ाक । उ०-जो कह मठ मसखरी जाना । कलियुग सोह के कारण बीच में से फट जाना । जैसे,--कपा मसकगया, गुनयत बखाना ।-तुलसी। दीवार मसक गई। मसखवा -संज्ञा पुं० [हिं० मांस+खाना ] वह जो मांस खाता संयो० कि-जाना। हो। मांसाहारी । उ०-बहिं हरित घोर मानवा । चहुँ (२) (चित्त का) चिन्तित होना । दुःख के कारण धंसना । दिस आय शुरै मसखवा ।—जायसी। उ०—ाजकुमार धीरे से उसी स्थान पर बैठ गए। पूर्व- मसजिद-संज्ञा स्त्री॰ [फा० मजिद ] सिजदा करने का स्थान । कालीन धातें स्मरण होने लगी और कलेजा मसकने लगा। मुसलमानों के एकत्र होकर नमाज़ पढ़ने तथा ईश्वर-वंदना -गदाधरसिंह। करने के लिए विशिष्ट रूप में बना हुआ स्थान। मसकरा-संज्ञा पुं० दे. "मसखरा"। उ.--जूमैंगे तब कहेंगे अब विशेष-मसजिद साधारणतः चौकोर बनाई जाती है और क्या कहं बनाय । भीर पर मन मसकरा ली किनौं भगि उसमें आगे की ओर कुछ खुला हुआ स्थान तथा हाथ-मुँह जाय।-धीर। धोने के लिए पानी का हौज होता है और पीछे की ओर मसकला-संज्ञा पुं० [अ० ] (1) सिकलीगरों का एक औजार जो नमाज़ पढ़ने के लिए दालान होता है जिसके ऊपर प्रायः हैसिया के आकार का होता है और जिसमें काठ का एक । एक से चार तक ऊँची मीनारे भी होती है, जिनमें से किसी