पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३९७

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महराई . २६८८ मह *-संशा स्त्री० [हि. महर+आई (प्रत्य.)] प्रधानता। विशेष- लोकों में से ७ ऊलोक और अधोलोक हैं। श्रेष्ठता। उ.- कुंडल श्रवनम वे गलाई । महरा की सौंपी। महर्लोक इन अलोकों में से चौथा है। महराई 1--जायसी। महर्षभी-संज्ञा स्त्री० [सं० ] कोंछ । केवाच । महराज-संज्ञा पुं० दे. "महाराज" | उ.-चलेउ मद्र महराज , महर्षि-संश पुं० [सं० महा+ऋषि ] (8) बहुत बड़ा और श्रेष्ठ सुभट सिरताज साज पजि ।--गोपाल। ऋपि। ऋषीश्वर । जैसे, वेदध्याय, नारद, अंगिरा इत्यादि। महराजा* -संज्ञा पुं० दे० "महाराज"। (२) एक राग जो भैरव के आठ पुत्रों में से एक माना महगण-संज्ञा पुंडि ] समुद्र। जाता है । उ०-पंचम ललित महर्षि बिलावल । अरु महगना-संशा पुं० [हिं० महर+आना (प्रत्य॰) । महरों के रहने वैशाख सुमाधव पिंगल । सहित समृद्धि आठ संताना । का स्थान । महरों के रहने की जगह, महला या गाँव । भैरव के जानहु नर नाना ।—गोपाल । उ.--(क) तुमको लाज होत की हमको वात परै जो कहूँ: महर्षिका-संज्ञा स्त्री० [सं० ] सफेद कंटकारी । भटकटैया । महराने ।--सूर । (ख) गोकुल में आनंद होत है मंगलः : महल-संज्ञा पुं० [अ० ] (१) राजा या रईस आदि के रहने का धनि महराने ढोल । —सूर । बहुत बड़ा और घढ़िया मकान । प्रासाद । (२) राजप्रासाद संज्ञा पु० दे० "महाराणा"। का वह विभाग जिसमें रानियाँ आदि रहती हो। रनिवास । महराब-संशा स्त्री० दे० "मेहराब" । उ०-बाट बाट बहु द्वार अंत:पुर । उ०—कुंज कुंद्र नवपुंज महल में सुखस असो बिराजत चामीकर महराबैं । -रघुराज । यह गाँवरी।-स्वा. हरिदास । (३) बड़ा कमरा । (५) महरि-संशावी [हि. महर ] (1) एक प्रकार का आदरसूचक अवसर । मका । वक्त। (५) पहादी मधुमक्खी । सारंग। पाद जिसका व्यवहार प्रज में प्रतिष्ठित स्त्रियों के संबंध में । इंगर । होता है। महलसरा-संज्ञा स्त्री० [अ० महल+मा0 सरा] महल का वह भाग विशेष--कभी कभी इस शब्द का व्यवहार केवल यशादी के जिसमें रानियाँ या बेगमें आदि रहती है। अंत:पुर। रनिवास । लिए भी बिना उनका नाम लिए ही होता है। महलाठ-संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार का पक्षी जिसकी दुम (२) गृहस्वामिनी। मालकिन । घरवाली । उ.--बाल लंबी, ठोर काली, छात। खैरी, पीठ खाकी रंग की और बोलि सहकि बिरावत चरित लखि गोपीगन महरि मुदित . पैर काले होते हैं। पुलकित गात ।-तुलसी । (३) ग्वालिन नामक पक्षी। महली पटैला-संज्ञा पुं० [हिं० महल+पटैला ] एक प्रकार की दहिंगल। 30-दही दही कर महरि पुकारा । हाग्लि यह नाव जिस पर केवल लकड़ी वा पत्थर आदि लावा बिनवा आपु निहारा ।—जायसी। जाता है। महरी-संज्ञा स्त्री॰ [देश॰ ] बालिन नामक पक्षी । दहिगल। महल्ला-संज्ञा पुं० [अ० ] शहर का कोई विभाग या टुकवा जिसमें महरुआ-संशा पुं० [देश०] जस्ता । (सुनार) बहुत मे मकान आदि हों। महरू-संज्ञा पुं० । दश] (1) चंडू पीने की नली । (२) एक यौ०-महल्लेदार-महल्ले का चौधरी या प्रधान । प्रकार का वृक्ष। महसिल-संज्ञा पुं० [अ० मुहस्सिल ] तहसील वसूल करनेवाला । महरूम-वि० [अ० जिसे प्राप्त न हो। जिसे न मिले। वंचित । महसूल आदि वसूल करनेवाला । उगाहनेवाला । उ०- क्रि० प्र०करना }---रखना ।-रहना। मीत नैन महरिरल नये बैठत नहिं हुइ सील । तन बीचा महगेटा-संज्ञा पुं० [हिं० महर+एटा (प्रत्य॰)] (1) महर का पैकरत है ये मन को तहसील ।रसनिधि । बेटा । महर का लड़का । (२) श्रीकृष्ण । महसीर-संज्ञा स्त्री० [ देश एक प्रकार की मछली। वि० दे. महरेटी-संशा बी० [हिं० महरेटा ] वृषभानु महर की लड़की, "महासीर"। श्रीराधिका । उ०—(क) नूपुर की धुनि सुनिरीक्षत है मह. महसूल-संगा पुं० [अ० ] (1) वह धन जो राजा या कोई अधि. रेटी खोलति न याते जब जब आपु गसि जात। रघुनाथ । कारी किसी विशिष्ट कार्य के लिए ले । कर । (२) भाड़ा। (ख) लाली महरेटी के अधर सरसान लागे अधरन बार किराया । जैसे,-आज कल रेल का महसूल कुछ बढ़ गया लागे बतिया रसाल की।-रखुनाथ । है। (३) मालगुजारी। लगान । महर्घता-संज्ञा स्त्री० [सं० ] महंगे होने का भाव । महँगी। महाँ*-अन्य० दे० "महँ" । उ०-प्रभु सस्य करी प्रहार महलोक-संशा पुं० [सं०] पुराणानुसार भू, भुव आदि चौदह गिरा प्रगटे नर केहरि खंभ महों।-तुलसी । लोकों में से एक । उ.-पल्यालोक जनलोक तप और महर निजलोक।-सूर। . महा-वि० [स० ] (1) अत्यंत । बहुत अधिक । उ.-महा