पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

फेरपट २३३३ संज्ञा पुं० (1) शृगाल । गीदड़ । (२) राक्षस । मुहा०—फेरी पबना भॉवर होना । विवाह के समय वर कन्या फेरवट-संज्ञा स्त्री० [हिं० फेरना ] (1) फिरने का भाव । (२) का साथ साथ मंडपस्तंभ की परिक्रमा करना। लपेटने में एक एक बार का खुमाव । फेरा । (३) घुमाव : (४) योगी या फकीर का किसी बस्ती में भिक्षा के लिए फिराव । पेच । चक्कर । जैसे, फेरवट की बात । (४) फेर.. बराबर आना । उ०-(क) आशा कोईधन करूँ मनसाकर फार । अंतर । कर्म। भभूत । जोगी फिरि फेरी करूं यों अनि आवै सूत ।- फेरवा-संशा पुं० [हि. फेरना ] सोने का वह छल्ला जो तार को कबीर । (ख) रूप नगर हग जोगिया फिरत सो फेरी दो तीन बार लपेट कर बनाया जाता है । लपेटुआ। देत । छबि मनि पावत हैं जहाँ पल झोरी भरि लेत ।- संज्ञा पुं० दे. "फेरा"। रसनिधि। फेरा-संशा पुं० [हिं० फेरना] (1) किसी स्थान या वस्तु के चारों ! क्रि० प्र०-देना।-लगाना। ओर गमन । परिक्रमण | चकर । जैसे,---वह ताल के चारों (५) कई बार आना जाना । चक्कर । उ०—न्योते गये ओर फेरा लगा रहा है। उ०-चारि खान में भरमता नंदलाल कहूँ सुनि बाल विहाल वियोग की घेरी । ऊसर कबहुँ न लगता पार । सो फेरा सब मिट गया सतगुरु के कौनहुं के पनाकर दे फिरि कुंजगलीन में फेरी।—पाकर । उपकार ।-कबीर । (६) किसी वस्तु को बेचने के लिये उसे लादकर गाँव गाँव क्रि०प्र० करना।—लगाना । गली गली घूमना। भाँवरी। (७) वह घरखी जिसपर रस्सी (२) लपेटने में एक एक बार का धुमाव । लपेट । मोष। पर ऐठन चढ़ाई जाती है। बल । जैसे,कई फेरे देकर तागा लपेटा गया है। फरीवाला-संज्ञा पुं० [हिं० फेरी+वाला ] घूम घूमकर सौदा कि०प्र०—करना ।—देना। बेचनेवाला व्यापारी। (३) बार बार आना जाना । इधर से उधर घूमना । जैसे,- फेरु-संज्ञा पुं० [सं०] गीदद। (क) इधर वह दिन में कई फेरे लगाता है। (ख) फकीर फेरुश्रा-संज्ञा पुं० दे० “फेरवा"। फेस लगा रहा है। उ०-ॐवर जो सब फूलन का फेरा। फेरौरी-संज्ञा स्त्री० [हिं० फेरना ] टूटे फूटे खपरेलों को छाजन से बास न लेइ, मालतिहि हेरा ।—जायसी । निकाल कर उनके स्थान में नये नये खपरेले रखने की क्रिया। क्रि०प्र०-करना।डालना । —लगाना । फेल-संज्ञा पुं० [अ० ] कर्म । काम । कार्य । जैसे, बुरा फेल । (४) इधर उधर से आगमन । घूमते फिरते आ जाना क्रि० प्र०—करना ।-होना। या जा पहुँचना । जैसे,—वे कभी तो मेरे यहाँ फेरा करेंगे। वि० [अं0 ] अकृतकार्य । जिसे कार्य में सफलता न हुई उ०—(क) पीजर मह जो परेवा घेरा । आप मजार कीन्ह हो। जैसे, इम्तहान में फेल होना। तहँ फेरा । ---जायसी । (ख) जहँ सतसंग कथा माधव की क्रि०प्र०-करना।—होना । सपनेहु करस न फेरो। तुलसी । (५) लौटकर फिर : नेलो-संवा पुं॰ [20] सभासद । सभ्य । जैसे, विश्वविद्यालय आना । पलटकर आना । जैसे,—इस समय तो जा रहा हूँ का केलो। फिर कभी फेरा करूँगा । उ०-कहा भयो जो देश द्वारका फेल्ट-संज्ञा पुं० [ अं०] नमदा । जमाया हुआ उन । जैसे, फेल्ट कीन्हों जाय बसेरा । आपुन ही या ब्रज के कारन करिहैं की टोपी। फिरि फिरि फेरो।-सूर । (६) आवर्स । घेरा। मंडल। फ्रेस-संज्ञा पुं॰ [ अं०] (1) चेहरा । मुँह । (२) सामना । (३) फेराफेरी-संशा स्त्री० [हिं० फेरना ] हेरा फेरी । इधर का उधर । टाइप का वह ऊपरी भाग जो छपने पर उभरता है। (४) क्रमपरिवर्तन । उलट । पनी का सामने का भाग जिस पर सूई और अंक रहते हैं। फेरि*--अव्य० [हिं० फिर ] फिर । पुनः । दुबारा । उ०-फहरिस्त-संज्ञा स्त्री० दे० "फ़िहरिस्त"। दास इते पर फेरि बुलावत यों अब आवत मेरी बलैया।। फैंसी-वि० [ अं०] (1) देखने में सुन्दर । अच्छी काट छाँट या -दास । रंग ढंग का । रूप रंग में मनोहर । जैसे, फैंसी छाता, कैंसी मुहा०-फेरि फेरि-बार बार । उ०-हरे हरे हेरि हेरि हँसि : धोती । (२) दिखाऊ । जो ऊपर से देखने में सुन्दर पर हसि फेरि फेरि कहत कहा नीकी लगत।-देव। टिकाऊ न हो। तडकभड़क का। फेरी-संज्ञा स्त्री० [हिं० फेरना ] (1) दे. “फेरा" । (२) दे. फॅक्टरी-संज्ञा स्त्री॰ [अं०] कारखाना । "फेर"। (३) परिक्रमा । प्रदक्षिणा । भावरी । जैसे,—सोम- फ़ैज़-संशा पुं० [अ० ] (1) वृद्धि । लाभ । (२) फल । परिणाम । वती की फेरी। . मुहा०-अपने फैज़ को पहुँचना अपने कर्म का उचित फल क्रि० प्र०-गलना । —पड़ना।-देना। पाना ।