पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/४१३

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मना माहेर और बालियाँ चारों ओर फैलती है। यह पेड तीम चालीस मावत्र । वानप्रस्थ । मश्वग । तीक्ष्णसार । महादुम । हाय ऊँचा होता है और सब प्रकार की भूमि पर होता 'मदुमा दही-संज्ञा पुं० [हिं० महना+दही वह दही जिसमें से है। इसके फूल, फर, श्रीज, लकड़ी सभी चीजें काम मथकर मक्खन निकाल लिया गया हो। मखनिया दही । में आती हैं। पंड बीस पचीस वर्ष में फूलने और फलने | महुभारी-संज्ञा स्त्री० [हिं० महुआ+बारी ] महुए का जंगल । लगता और सैकड़ों वर्ष तक फूलता-फलता है। इसका मज-संज्ञा पुं० [सं० महोत्सव-प्रा० महोच्छव मि. पं. महोछा ] पसियों फूलने के पहले फागुन चैत में अब जाती है। महोल्पव । उ.-कथा कीरतन मगन महुर्छा करि खनन पत्तियों के झड़ने पर इसकी डालियों के सिरों पर कलियों। धीर । कबहूँ न काज बिगरै नर तेरो, सत सत कहै कबीर । के गुप्त निकलने लगते हैं जो इँची के आकार के होते -कबीर। है। इये महुए का कुचियाना कहते हैं। कलियों बढ़ती महुला-वि० [हिं० महुआ ] [ स्त्री० महुला ] महुए के रंग का । जाती है और उनके खिलने पर कोश के आकार का सफेद | विशेष-इस शम्द का प्रयोग प्रायः बैलों गौओं आदि के फूल निकलता है जो गुदारा और दोनों ओर खुला हुआ संबंध में होता है। होता है और जिसके भीतर जीरे होते हैं। यही फूल खाने संज्ञा पुं. यह बैल जिसके शरीर पर लाल और काले रंग के काम में आता है और महुआ कहलाता है। महुए का के बाल हों। (ऐसा बैल निकम्मा समझा जाता है।) फूल बीस दाईस दिन तक लगातार टपकता है। महुए के महुवरि-संज्ञा स्त्री० [हिं० महुअर ] महुअर नाम का बाजा। फूल में चीनी का प्रायः आधा अंश होता है। इसी मे तूं बड़ी। उ०-तें कत तोपो हार नौयर को। मोती पशु-पक्षी और मनुष्य सत्र इमे चाव से स्वाते हैं। इसके रस घगरि रहे सब बन में गयो कान को तरको ॥ए अवगुन जो में विशेषता यह होती है कि उसमें रोटियां पूरी की भाँति । करत गोकुल में तिलक दिये केसरि को। ढीठ गुलाब दही पकाई जा सकती है। इसका प्रयोग हरे और सूखे दोनों में माते ओदन हरि कमरी को ।। जाइ पुकार सुमति आगे रूपों में होता है। हरे महुए के फूल को कुचलकर रम्य कहत जु मोहन लरिको । सूर श्याम जानि चतुराई जेहि निकालकर पूरियां पकाई जाती हैं और पीसकर उसे आटे अभ्यास महुवरि को।-सूर । में मिलाकर रोटियों बनाते हैं जिन्हें "महुअरी" कहते हैं। महुवा-संज्ञा पुं०-दे. "महुआ"। सूखे महुए को भूनकर उसमें पियार, पोस्त के दाने आदि महख*-संज्ञा पुं० [सं० मधूक ] (1) महुआ। उ०—(क) मिलाकर कुटते हैं। इस रूप में इसे लाटा कहते है। छिनक छीले लाल वह जौ लगि नहि बतराय । ऊख इसे भिगोकर और पीसकर आटे में मिलाकर "महुअरी" ! महूख पियूख की तो लगि भूख न जाय।-बिहारी । बनाई जाती है। हरे और सूखे महुए लोग भूनकर भी (ख) ऊरख रस केतक महग्व रस मीठो है पियूबहू की पैली खाते हैं। गरीबों के लिए यह बड़ा ही उपयोगी होता है। धाहे जाको नियराइये । (ग) कहाँ ऊष महग्व में एनी यह गौओं भैंसों को भी खिलाया जाता है जिससे वे मोटी मिठास पियूख हू ना हरिऔध हहै । जिती चारुता होती है और उनका वृध बढ़ता है। इसमे शराब खींची' कोमलता सुकुमारता माधुरता अधरा में अहै। हरिऔध । जाती है। महुए की शराब की संस्कृत में "माध्वी" और (२) जेठीमधु । मुलेठी । आज कल के गवार "स" कहते हैं। महुए का फूल बहुत महरति*-संज्ञा पुं० दे० "मुहूर्स"। उ--धरती अंबर ना हता दिनों तक रहता है और बिगड़ता नहीं। इसका फल कौन था पंडित पास । कौन महरति थापिया चाँद सूर परवल के आकार का होता है और कलंदी कहलाता है। आकास ।-कबीर । इसके बीच में एक बीज होता है जिससे तेल निकलता महेंद्र-संज्ञा धु० [सं० ) (१) विष्णु। (२) इंद्र । (३) भारतवर्ष है। वैद्यक में महुए के फूल को मधुर, शीतल, धातु- के एक पर्वत का नाम जो सात कुल पर्वतों में गिना जाता बर्द्धक तथा दाह, पित्त और बात का नाशक, हृदय है। महेंद्राचल । को हितकर और भारी लिखा है। इसके फल को शीतल, महेंद्रवारुणी-संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ा इंद्रायण । शुक्रजनक, धातु और बलबर्द्धक, बात, पिस, तृषा, दाह, महेंद्राल-संज्ञा स्त्री० [हिं० महेंद्र+अलि ] महेंद्री नामक नदी श्वास, क्षयी आदि को दूर करनेवाला माना है। छाल का नाम । रक्त-पित्त-नाशक और शोधक मानी है। इसके तेल महेंद्री-संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नदी का नाम जो गुजरात में को कफ, पित्त ओर दाहनाशक और सार को भूतबाधा बहती है। इसे महेंद्राल भी कहते हैं। निवारक लिखा है। महर-संज्ञा पुं० दे० "महेरा"। पर्या०-मधूक । मधुष्टील । मधुस्रवा। मधुपुष्प । रोधपुष्प। संज्ञा पुं॰ [देश॰] झगड़ा । बरवा।