पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/४१७

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मंजिष्ठ मांडव मांजिष्ठ-वि० [सं० मंजिठा ) (1) मजीठ का सा। मजीठ के पुनि मोंट राख्यो।-सूर । (ख) मानो नील माँट मह समान । (२) मजीठ के रंग का।। बोरे लै यमुना जु पखारे।—सूर । (२) घर का ऊपरी संपा '• एक प्रकार का मूत्ररोग या प्रमेह जिसमें मजीठ ' भाग । अटारी । के रंग का लाल पेशाय होता है। माँठ-संज्ञा पुं० [सं० मट्टक ] (१) मटका । कुंडा । मिट्टी का बड़ा मांझ--अव्य [सं० मध्य ] में। भीतर। बीच । अंदर । बरतन । (२) नील घोलने का मिट्टी का बना बड़ा बरतन। उ.-(क) ब्रजहि चली आई अब माँझ । सुरभी सबै माँठी-संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] (1) एक प्रकार की फूल धातु की लेह आगे करि रैनि होइ पुनि बनही मांझ।-सूर । (ख) ढली हुई चूड़ियाँ जो पूरब में नीच जाति की स्त्रियाँ हाथ में तुम्हरे कटक मात्र सुनु अंगद मोसन भिरहि कवन योधा कलाई से लेकर कोहनी तक पहनती हैं। इसे 'मठिया' भी बद।-तुलसी । (ग) आपुर माँझ महोदर साँचे। क्यों कहते हैं। (२) मट्टा या मठरी नामक पकवान जो मैदे का तुम बार विरोधनि रौवे ।-केशव । (घ) गज करि सौतिन बना होता है। मजेज सो निकेत माँन, पर पति हेत सेज साँझ तें : मांड-संज्ञा पुं० [सं० मंट ] पकाए हुए चावलों में से निकला हुआ सवारती ।--प्रताप । लसदार पानी। भात का पमेव । पीच । पसाव ।

  • संशा पु० (१) अंतर । फरक ।

संज्ञा स्त्री० [हिं० मांडना ] मांडने की क्रिया या भाव । महा.-माँझ पड़ना या होना-बीच पड़ना। अंतर पड़ना। संज्ञा पुं० [देश] एक प्रकार का राग। उ.-द्वादश बरष माँझ भयो तब ही पिता सेवा सावधान : माँड़ना-त्रिी०म० [सं० मंडन ] (1) मर्दन करना । मलना । मन नीको कर आनिये ।-प्रियादास । मसलना । मीजना । सानना । गूंधना । जैसे, आटा (२) नदी के बीच में पड़ी हुई रेतीली भूमि । मोदना । उ.-तष पीसै जब पहिले धोये। कापर-छान माँझा-संज्ञा पुं० [सं० मध्य ] (1) नदी के बीच की जमीन । नदी मांड भल. होये ।—जायसी । (२) लगाना । पोतना। लेपन में का टापू। (२) एक प्रकार का आभूषण जो पगड़ी पर करना। जैसे, मुँह में केसर वा गुलाब मौदना । (३) पहना जाता है। उ.-पैर में लेगर, पाग पर मांगा आदि रचना । बनाना । मजाना । (४) किपी अन्न की पाल में से यावत् प्रतिष्ठा वशता हूँ।-राधाकृष्णदास । (३) एक दाने झाड़ना । उ०—ाडि माडि खरिहान क्रोध को फोता प्रकार का ढाँचा जो गोबई के बीच में रहता है और जो भजन भत । (५) मचाना । ठानना । उ.-और मंत्र पाई को जमीन पर गिरने से रोकता है। (जुलाहे) (४) कुछ उर जनि सानो आजु सुकषि रन माँहि ।-सूर । वृक्ष का तना। () वे पीले काहे जो कहीं कहीं वर और माँडनी-संजा ना [सं० मरन संजाफ। मम्जी। गोट । हाशिया। कन्या को विवाह में दो तीन दिन पहले हलदी चढ़ने पर : किनारा । उ.-(क) अगिया नील मांदनी राती निरखत पहनाए जाने हैं। नैन चुराई ।-सूर । (ब) नील के चकी मॉडनि लाल । संज्ञा पुं० [हिं० माजना ] पतंग या गड्डी उड़ाने के डोरे या भुजनि नव आभूपण माल 1--सूर । नख पर सरेम और शीशे के चूरे आदि से चढ़ाया जानेवाला मांड्यांग-संग पुं० [सं० मंडप ] (1) आगंतुक लोगों के ठहरने कलफ जिम्मय ढोरे या नख में मजबूती आती है। का ज्यान । अतिधिशाला। (२) विवाहादि के घर में वह क्रि० प्र०--चढ़ाना।—देना । स्थान जहाँ संपूर्ण आहत देवताओं का स्थापन किया सका धु० दे० "मझा"। जाता है। (३) विवाह का मंडप । मड़वा । उ.-श्राए माँझिल*+-कि० वि० [सं० मध्य ] बीच का । मध्य का। नाय द्वारिका नीके रच्यो माँड्यो छाय । ब्याह केलि विधि श्रीघवाला । उ...बोला माँझिल तलय तुरंग तैतीस जू। रची सकल सुग्व मौजगनी नहि जाय । --सूर । लावह मम हित पाँगि ग्राम गुरु बीस जू ।—विश्राम। मांडलिक-संशा पुं० [सं०] (1) यह जो किसी मंबल या प्रांत माँझी-संज्ञा पुं० [सं० मध्य, हिं० माँझ ? ] (1) नाच खेनेवाला। की रक्षा अथवा शासन करता हो। (२) वह छोटा राजा केवट । मल्लाह । (२) दो व्यक्तियों के बीच में पड़कर जो किसी सार्वभौम या चक्रवर्ती राजा के अधीन हो और मामला ते करा देनेवाला । उ०-सँवरि रकत नैनन भरि उसे कर देता हो। (३) शासन कार्य। चुवा । रोइ हकारेसि माँझी सुवा ।--जायसी। (३)| माँड़व-संक्षा पुं० [सं० मंडए । विवाह आदि अथवा दूसरे शुभ जोरावर । बलवान् । (हिं.) कृत्यों के लिए छाया हुआ मंडप । उ०-(क) आलेहि बाँस माँट* -संज्ञा पुं० [सं० मट्ठक1 (9) मिट्टी का बड़ा बरतन जिसमें के माँग्न मनिगन पूरन हो । मोतिन झालर लागि चहूँ दिसि अनाज या पानी आदि रखते हैं। मटका । कुंडा । उ. झूलन हो।-तुलसी । (ख) गुनि गन कहेउ नृप मास्त्र (क) पुनि कमंडलु धन्यो तहाँसो बढ़ि गयो कुभ धरि बहुरि । छावन। गावहिं गीत सुभासिनि बाज वधावन ।-सुलसी।