पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/४१९

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मांधाता २७१० मांस मांधाता-शा प० [स. मांधात ] एक प्राचीन सूर्यवंशी राजा जो युवनाश्व का पुत्र था और जिसकी राजधानी अयोध्या में । थी। कहते हैं कि राजा युवनाथ कोई संसान न होने पर भी संपार त्यागकर वन में ऋषियों के साथ रहने लगा था। ऋषियों ने उस पर दया करके उसके घर संतान होने के लिए यज्ञ किया। भाधी रात के समय जब यज्ञ समाप्त हो गया, तब ऋपिरों ने एक घड़े में अभिमंत्रित जल भर कर वेदी में रख दिया और आप सो गए । रात के समय जय युवना को बहुत अधिक प्यास लगी, तब उसने उठ- . कर घही जल पी लिया जिसके कारण उसे गर्भ रह गया। समय पाकर उस गर्भ मे दाहिनी कोख फाइकर एक पुत्र उत्पत्र हुआ जो यही गंधाता था। इंद्र ने इसे अपना अंगूठा एसाकर पाला था। आगे चलकर यह बड़ा प्रतारी और चक्रवर्ती राजा हुआ था और इसने शशविंदु की कन्या बिंदुमती के साथ विवाह किया था, जिसके गर्भ से इसे पुरुकुत्प, अंबरीष और मुचकुंद नामक तीन पुत्र और पचाय, क याएँ उम्पन्न हुई थीं। उ.....कयो मांधाला सों जाह।। पुत्री एक देहु मोहिं राइ । -सूर।। मापना-कि० अ० [हिं० मॉतना ] नशे में चूर होना । उन्मस होना । उ... नयन सजल तन थरथर काँपी ।माँज हिं खाइमीन जनु मापी।-तुलसी। कि० स० दे० "मापना"। माय-अन्य० [सं० मध्य, हि माँझ ] में। बीच । मध्य । अंदर। उ.-परप एक के माय एकादशी चौविण पौ। सुनो स्वन के नाय, फल समेत वर्णन कए।-विश्राम । मं.स--संज्ञा पुं० [सं०1 (9) मनुष्यों और पशुओं आदि के शरीर के अंतर्गत वह प्रसिद्ध चिकना, मुलायम, लचीला, लाल रंग का पदार्थ जो शरीर का एक मुख्य अवयव है और जो रेशेदार तथा घरबी रिला हुआ होता है। शरीर का यह अंश हड्डी, चमड़े, नाही, नम और घरबी आदि से भिन्न है। इसका एक अंश कंकाल से लगा हुआ छोटे छोटे टुकड़ों में बँटा रहता है और वह ऐच्छिक कहलाता है। अर्थात् इच्छानुसार उम्पका संचालन किया जा सकता है। ये टुकड़े आपस में सूत्रों के द्वारा जुड़े रहते हैं और उन सूत्रों के हटाने पर महज में अलग हो सकते हैं। इन टुकड़ों को मांसपेशी कहते हैं। ये मांस- पेशियां छोधी, बी, पतली, मोटी आदि अनेक प्रकार की होती है। आशयों. नलियों. मागों और हृदय आदि अंगों का मांय पेशियों में विभक्त नहीं होता । इन अंगों में माँस की केवल पतली या मोटी तहें रहती हैं। जो आपस में एक दूसरी में बिलकुल मिली हुई होती हैं। ऐसा मांस अनैच्छिक या स्वाधीन कहलाता है। अर्थात् इच्छानुसार उसका संचा. लन नहीं किया जा सकता। मांस अथवा मांस-पेशी मुला- यम होने के कारण चाकू आदि से सहज में कट जाती है। शरीर में सभी जगह थोड़ा बहुस माँस रहता है औ शरीर के भार में उसका अंश प्रति सैकडे ४२-५३ के लगभग होता है। शरीर की सब प्रकार की गतियाँ मांस के ही द्वारा होती है। मांस आवश्यकता पड़ने पर सिकुड़कर छोटा और मोटा होता है और फिर अपनी पूर्व अवस्था में आ जाता है। सुश्रत के अनुसार मांसपेशियों की संख्या ५०० तथा आधु- निक पाश्चात्य चिकित्सकों के मत से ५१९ है। वैयक के अनुसार यह रक्त से उत्पन्न तीसरी धातु है। भावप्रकाश के अनुसार जब शरीर की अग्नि अथवा ताप के द्वारा रक्त का परिपाक होता है और वह वायु के संयोग से घनीभूत होता है, तब वह मांस का रूप धारण करता है। वैधक के अनु- सार साधारणतः सभी प्रकार का मांस वायुनाशक, उपचय- कारक, बलवर्धक, पुष्टिकारक, गुरु, हृदपग्राही और मधुर- रस होता है । गोश्त । पा०-आमिष । पिशित । पालल । फव्य । पल । आम्रज । यौ---मांस का घी-चरबी । (२) कुछ विशिष्ट पशुओं के शरीर का उक्त अंश जो प्रायः स्वाया जाता है। गोश्त । विशेष-हमारे यहाँ यह मांस दो प्रकार का माना गया है- गंगल और अनूप । जंधाल, विलस्थ, गृहाशय, पर्णमृग, विकर, प्रतुद, प्रसह और ग्राम्य इन आठ प्रकार के जंगली जीवों का मांस जांगल कहलाता है; और वैयक के अनुसार मधुर, कपाय, रुक्ष, लघु, बलकारक, शुक्रवर्धक, अग्निदीपक दोषघ्न और बधिरता, अरुचि, वपि, प्रमेह, मुग्दरोग, क्लीपद और गलगंड आदि का नाशक माना जाता है। कुलेचर, प्लय, कोशस्थ, पादी और मस्स्य इन पाँच प्रकार के जीवों का मांस आनूप कहलाता है; और वैधक के अनुसार साधा- रणतः मधुर रस, स्निग्ध, गुरु, अनि को मंद करनेवाला, कफकारक तथा मांसपोषक होता है। पक्षियों में से पुरुष जाति अथवा नर का और चौपायों में स्त्री जाति अथवा मादा का मांस अच्छा कहा गया है। इसके अतिरिक्त भित भिज जीवों के मांस के गुण भी भिन्न भिन्न होते हैं। साधारणतः प्राय: सभी देशों और मभी जातियों में कुछ विशिष्ट पशुओं, पक्षियों और मछलियों आदि का मांस बहुत अधिकता से खाया जाता है। पर भारत के कुछ धार्मिक संप्रदायों के अनुसार मांस खाना बहुत ही निषिद्ध है। पुराणों में इसका खाना पाप माना गया है। कुछ आधुनिक वैज्ञानिकों और चिकित्सकों आदि का मत है कि मांस मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं है और उसके खाने से अनेक प्रकार के चातक तथा असाध्य रोग उत्पन्न होते हैं। यौ०-मांसाहारी।