पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/४३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मामा २७२६ माया -- (४) पक्की या ते की हुई बात । कौल करार । (५) प्रगड़ा । । अन्य ० [सं० गध्य ] दे. "माहि"। उ०-पाछे लोकपाल विवाद । मुकदमा। सब जीते सुरपति दियो उठाय । बरुण कुबेर अग्नि यम मुहा०-दे"मुकदमा" के मुहा०। मारुत स्वस किये क्षण माय ।-सूर। (७) प्रधान विषय । मुख्य वात। (८) सुदर खी। युवती। संज्ञा पुं० [सं०] (1) पीतांबर । (२) असुर । (बाज़ारू) (९) संभोग । स्त्री-प्रसंग। मायक-संशा पुं० [सं०] माया करनेवाला । मायावी । 30-(क) मुहा०-मामला बनाना संभोग करना । प्रसंग करना । सायक सम मायक नयन रँगे त्रिविधि रंग गात । झरनौ मामा-मा पु. [ अनु० मि० सं० मातुल ] [ स्त्री० मामी ] माता लखि दुरि जाति जल लखि जलजात लजात ।-बिहारी। का भाई । माँ का भाई। (ग्व) हंपगति नायक कि गूड गुण गायक कि श्रवण सुदा- ससा बी० [फा०] (१) माता । माँ। उ०--आदम आदि । यक कि मायक है मय के-केशव । मिद्धि, नहि पावा । मामा हौवा कह ते आवा।-कबीर।। + पुं० दे. "मायका"। (२) रोटी पकानेवाली स्त्री। मायका-संशा पुं० [सं० मातृ+का (प्रत्य॰)] नैहर । पोहर । यौ०-मामागीरी दूसरों की रोटी पकाने का काम। उ०-(क) पठई पमुशाय सहेलिन यों कोऊ मायके में (३) बुड्ढी स्त्री। बुढ़िया । (४) नौकरानी । दाई । दासी।। मिलतीं न कहा । (ख) सो जा सखी भरमै मति री यह लौंडी। ग्वोजा हमारे ही मायके-वारो। दूलह । (ग) मायके में मन- मामिला-संशा पु० दे० "मामला"। भावन की रति कीरति शंभु गिरा हुन गावति । भु । मामी-संहा स्त्री० [सं० मा निषेधार्थक ] आरोप को ध्यान में न मायण-संक्षा पुं० [सं०] वेद का भाष्य करनेवाले सायण के ___ लाना । अपने दोष पर ध्यान न देना।। पिता का नाम। महा-मामी पीना-दोपारोपण को ध्यान में न लाना । मुकर मायन-संक्षा पुं० [सं० मातृका+आनयन ] (१) वह दिन वा जाना । अपने दोष पर ध्यान न देना । उ०—(क) ऊधो हरि तिथि जिन्य में विवाह में मातृका पूजन और पितृ-निमंत्रण काहे के अंतर्यामी । अजहूँ न आइ मिले यहि आंसर होता है। उ.--वनि बनि आवत नारि जानि गृह मायन अवधि यतावत लाम।। कीन्ही प्रीति पुहुप संडा को अपने हो ।---तुलसी। (२) उपर्युक्त दिन का कृत्य । मातृका-पूजन काज के कामी। तिनको कौन परेखा कीजै जे हैं गरुड़ के या पितृ-निमंत्रण आदि कार्य । उ.-अभ्युदयिक करवाय गामी । आह उधार प्रीति कलई सी जैसे ग्बाटी आमी । श्राद्ध विधि सब विवाह के चारा । कृत्य तेल मायन करव सूर इते पर सुनसनि मरियत ऊधो पीवस मामी ।—सूर । व्याह विधान अपारा ।-रघुराज । (ख) लाज कि और कहा कहि केशव जे सुनिये गुण ते सब मायनी-संगा स्त्री० दे. "मायाविनी" । उ.--प्रचंड कोप ठाये। मामः पिये इनकी मेरी माइ को हे हरि आरह गांठ तालका अखंड ओज मायनी । गिरी धरा धाक दै सुरेश हठाये।--केशव । शोक-दायनी ।-रघुराज । मा-संज्ञा स्त्री अनु० मि० सं० मातुल ] [स्त्री० ममानी ] माता : संज्ञा स्त्री० [अ० मान। ] अर्थ । मतलब । आशय । का भाई । मामा । ( मुसलमान ) मायल-वि० [फा०] (१) झुका हुआ । रुजू । प्रवृत्त । उ०--- मामूल-मंशा पुं० [अ० 1 (9) टेव । लत । (२) रीति । रवाज। इक तो हायल रहत ही मायल है वा चाय । तापर घायल परिपाटी। (३) वह धन जो किसी को रवाज आदि के कै गई पायल बाल बजाय । -रामसहाय । (२) मिश्रित । कारण मिलता हो। मिला हुआ । जैसे,-सजी मायल सफेद रंग का पक्षी मामूली-वि० [अ०] (१) नियमित । नियत । (२) सामान्य । देम्बने में बहुत सुंदर लगता है। साधारण । मायव-संज्ञा पुं० [सं०] मायु के गोत्र के लोग। माय - संशा स्त्री० [सं० मातृ ] (1) माता । माँ। जनन । माया-संवा स्त्री० [सं०] (1) लक्ष्मी । (२) द्रव्य । धन । संपत्ति । उ.-जसुमति माय लाल अपने को शुभ दिन डोल झुलायो। दौलत । उ०-(क) माया त्यागे क्या भया मान तजा नहि -~-सूर । (२) किसी बी वा आदरणीय स्त्री के लिए संबो- . जाय। कबीर । (ख)माया को दोष यह जो कबहूँघटि धन का शब्द । उ-तब जानकी सासु पग लागी। सुनिय : जाय। तौ रहीम मरिको भलो दुख सहि जिय बलाय । माय में परम अभागी।-तुलसी। -रहीम । (ग) जो चाहै माया बहु जोरी । करै अनर्थ सो मंज्ञा स्त्री० [सं० माया } दे० "माया"। उ०—(क) ईश . लाग्य करोरी । निश्चल । (३) अविद्या । अज्ञानता । भ्रम । माय विलोकि के उपजाप्यो मन पूत ।--केशव । (ख) (४) छल । कपट । धोखा । चालबाजी । उ.-(क) सुर मुनि मेष किये किधौं ब्रह्म जीव माय हैं। तुलसी। माया बस केकई कुसमय कीन्ह कुचाल । --तुलसी । (ख)