पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/४५९

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मिर्च मिलना रहती हैं। प्रायः की दशा में इनका रंग हरा और पकने कभी इन सूखे फलों को पानी में भिगोकर उनका ऊपरी पर लाल हो जाता है । मयाले में कच्चं फलियों भी काम छिलका अलग कर लिया जाता है जिसम्म अंदर से सफेद या आता है और पकी तथा सुम्वाई हुई फलियाँ भी । कु: मटमैले रंग के फल निकल आते हैं और जो बाजारों में जानि की फलियाँ बहुन अधिक नित नथा कुछ बहुत का "सफेद मिर्च' के नाम में बिकने हैं। इस दशा में उनका नित होनी है। अचार आदि में नो ये फलियाँ और मदानों तीतापन भी कुछ कम हो जाता है। भारतवर्ष में इसका के साथ शादीही जाती है, पर स्वयं इन फलियों का भी व्यवहार और उपज बहुत प्राचीन काल में होती आई है और अचार पड़ता है। इसके पत्तों की तरकारी भी बनाई जाती यहाँ में बहुत अधिक मात्रा में विदेश में भेजी गती रही है। है। इसका स्वाद तिक्त होने के कारण तथा इसके गरम वैद्यक में यह कड़वी, हलफी, घरपरी, गरम, रूखी, तीक्ष्ण, होने के कारण कुछ लोग इयका हुन का व्यवहार अवृष्य, छेदक, शोषक, पिसकारी, अशिप्रदीपक, राधिकारी, करते है अथवा बिलकुल ही नहीं करने । वैश्यक में यह . तथा कफ, वात, पाय, शूल, कृमि, बांग्मी, हृदय रोग, तिक्त, अग्निदीपक, दाहजनक तथा कफ, अरुचि, विचिका, प्रमेह और बवासीर का नाश करने वाली मानी गई है। यण, प्रार्द्रता, तंद्रा, मोह, प्रलाप और स्वर-भेद्र आदि को साधारणत: इसका व्यवहार मसाले के रूप में ही होता है, दूर करनेवाली मानी गई है। स्वचा पर इसका रस लगने से पर वैद्यक, हिकमत और डाक्टरी में यह ओषधि के रूप में जलन होती है। और यदि इसका लेप किया जाय तो तुरंत भी काम आती है। जिन लोगों को लाल मिर्च अप्रिय या घटाले पड़ जाते है। इसके वन महश्य, स्वचा, वृक्क और । हानिकारक होती है, वे प्रायः इसी का व्यवहार करते हैं; जनमें दिय में अधिक उत्तेजना होती है। पर यदि इसका क्योंकि यह उसय तिक्त भी कम होती है, और उत्तेजक बहुन अधिक संबन किया जाप, नो बल और वीर्य काहानि तथा दाहजनक भी कम होती है। होती है । वैद्यक, हिकात और डाक्टरी सभी में इसका पर्या--मारिच। बेग्ज । यवनप्रिय । वलीज। कोलक । कृष्ण । न्यवहार पधि रूप में होता है। शुद्ध । कोरक । धर्मपत्तन। अपण । वरि। कटुक । वेगुक । पर्या०-कटुवंरा । रक्त मरिच । कुरिच । तीक्ष्णा । उज्ज्वला। शिरोवृस । वार आदि। तीअशक्ति । अजड़ा। वि० जिपका स्वभाव बहुत ही उग्र, सीव या कटु हो । (१०) (२) एक प्रकार का प्रसिद्ध तिक्त, काला, छोटा दाना जिन मिर्चना-संशा सी० [हिं० मिर्च+न (प्रत्य०) ] झड़बेरी के फलों का "काली मिर्च" या "गोर मिर्ध" कहते हैं और जिसका चूर्णजोनमक-मिर्च मिलाकर चाट के रूप में बेचा जाता है। व्यवहार व्यंजनों में मसाले के रूप में होता है। मिर्चिया-शा बाहिं मिर्च ] रोहिप घाल। विशेष—यह दाना एक लता का फल होना है। इस सता : मिलका-संज्ञा स्त्री० [अ० मिल्क ] (1) जमीन-जायदाद । जमी- का सेता पूर्व भारत में आसाम में, तथा दक्षिण भारत में | दारी। मिलकियत । (२) जागीर । उ०-ब्रज की भूमि मलावार, कोचीन, डावनकौर आदि प्रदेशों में अधिकता इंद्र ने मानो मदन मिलक करि पाई।-सूर। होती है। देहरादून और सहारनपुर आदि कुछ स्थानों में मिलकी--संज्ञा स्त्री० [ff० मिलक+ई (प्रत्य॰)] (1) वह जिसके में इसकी थोड़ी रहुन ती होती है । पहलता प्रायः . पाय जमीन-जायदाद हो। जमींदार । (२) वह जिसके दुसरे वृक्षों पर चानी और उन्हीं के रहार फेरती है। यह पार धन-संपति हो। दौलतमंद । अमीर । रता बहुत हल होती है और इसके को पल के पत्तों के मिलन-संशा पु० [सं० ] (1) मिलने की क्रिया या भाव । REान और ५-७ इंच लंबे तथा ३-४ इंच चौड़े होते हैं। शिलाप । भेंट। समागम । योग । (२) मिश्रण । मिलावट । इसकी लंबी लंबीडियों में गुच्छों में फल और फल लगन मिलनमार-वि० [हिं० मिलन+मार (प्रत्य॰)] जोमय से प्रेम- हैं। प्रायः वर्षा ऋतु में पान की बेल की तरह इस लता के पूर्वक मिलता हो । सब ये हेलमेल रखनेवाला । सध्यत्र- भी छोटे छोटे टुकड़े करके बड़े बड़े वृक्षों की जड़ों के पाप हार रखनेवाला और सुशील । गाड़ दिए जाते है, जो थोड़े दिनों में लता के रूप में बढ़कर । मिलनसाग-संज्ञा स्त्री० [हि० मिलनमार+ई (प्रत्य॰)] सब से उन वृक्षों पर फैलने लगते हैं। नारियल, कटहल और आम प्रेमपूर्वक मिलने का गुण । सब से हेल-मेल रखना । सद्- के वृक्षों पर यह सना बहुत अच्छी तरह फैलती है । तीसरे व्यवहार और सुशीलता । या चौथे वर्ष इन लनाओं में फल लगने लगते हैं और प्रायः मिलना-क्रि० स [सं० मिलन } (१) एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ बीय वर्ष तक लगन रहने हैं। कच्ची दशा में ये फल लाल में परना। सम्मिलित होना। मिश्रित होना । जैसे, दाल रंग के होते हैं, पर पकने और सूखने पर काले रंग के हो में नरक मिलना । (२) दो भिन्न भिन्न पदार्थों का एक जाते हैं और प्रायः इसी रूप में बाजारों में मिलते हैं। कभी होना। बीच में का अंतर मिटना । जैसे.--अब ये दोनों