पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/४६९

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मीर बशी २७६० मुंजप्राम मीर बख्शी-संज्ञा पुं॰ [फा०] मुसलमानी राजस्व काल का एक भाव । (२) खेल में किसी लड़के का सर्वप्रथम होना। (३) प्रधान कर्मचारी जिसका काम वेतन बाँटना होता था। मेल में लड़कों का अपना दाँव खेलकर खेल से अलग मोर बहर-संज्ञा पुं० दे. "मीर वहरी"। हो जाना। मीर बहरी-संशा पुं० [फा०] (1) मुसलमानी राजस्व काल में मील-संज्ञा पुं० [सं०] वन । जंगल । जल-रेना का प्रधान अधिकारी। (२) वह प्रधान कर्मा- संज्ञा पुं० [ अं०] दूरी की एक नाप जो १७६० गज़ की होती चारी जो यंदरगाहों आदि का निरीक्षण करता था। है। इये साधारण कोस का आधा मानते हैं। मीर बार-संज्ञा पुं॰ [ 10 ] पुराने मुसलमानी समय का वह मीलक-संज्ञा पुं० [सं० । रोहित मछली । रोह । अधिकारी जो लोगों को किसी सरदार या बादशाह के मीलन--संज्ञा पुं० [सं०] [वि. मालनीय, मालित) (१) बंद करना। साने उपस्थित होने से पहले उन्हें देखता और तब उप- . जैसे, नेग्रमीलन । (२) संकुचित करना । सिकोड़ना । स्थित होने की आज्ञा देता था। मीलित-वि० [सं०] (1) बंद किया हुआ । (२) सिकोड़ा हुआ। मीर भुनड़ी-सं: पुं० [ फा मार+देन गुनड़ा ] एक करिपन धीर संज्ञा पुं० एक अलंकार जिसमें यह कहा जाता है कि एक जिग है जड़े अपना आदि पुरुष और आचार्य गगनते हैं होने के कारण दो वस्तुओं ( उपमेय और उपमान ) में भेद और जिसके वंश में वे अपने आपको समझते हैं । कहते हैं कि नहीं जान पड़ता, वे एक में मिली जान पड़ती है। उ-- ये स्त्रियों के वंश में रहते, चरखा कातफर अपना निर्वाह करते . पैखुरी लगी गुलाब की गात न जानी जाय । और छ; महीने स्त्री तथा : महीने पुरुष रहा करते थे। मीवग-संज्ञा पुं० 1 सं०] एक बहुत बड़ी संख्या का नाम । (बौद्ध) जव हीजड़ों में कोई नया हीजड़ा नाकर सम्मिलित होता मीवर-वि० | सं० 1 (1) हिगक । (२) पूज्य । है, तब वे उसी के नाम का कड़ाही तलते और उये पकवान संा पुं० सेनापति ।। बिलाते हैं। कहते है कि जो कोई यह पकवान बा लेता है, मीचा--- ५० [सं० भाव (1) पेट में का कीड़ा । (२) वह भी हजड़ों की तरह हाथ पैर मटकाने लगता है। वायु । हया । (३) मार । तत्व । मीर मंज़िल-संग पुं० [In मार+अ गगिल ] वह कर्मचारी मीशान-संशा ]. [सं०] महारबध वृक्ष । अमलताय । जो बादशाहों या लश्कर आदि के पहुंचने से पहले ही मैंगना-संशा पुं० ! हिं० मुनगा ] सहिजन । मुनगा। मंजिल या पड़ाव पर पहुँचकर वहाँ सब प्रकार का मुँगग-संज्ञा पुं० [सं० मुद्गर ] [ स्त्री० मुगरी ] हथौड़े के आकार व्यवस्था करे। का काठ का बना हुआ वह औज़ार जो किसी प्रकार का मीर मजलिस-संश। पुं० [फा०] सभा या अधिवेशन का प्रधान आघात करने या किसी चीज़ को पीटने-ठोंकने आदि के अधिकारी । सभापति । काम आता है। जैसे, यूँ टा गाड़ने का मुंगरा, घंटा मीर महल्ला-संज्ञा पुं० [फा० मीर+अ. महला किती महल्ले बजाने की मुंगरी, रंगरेजों की मुंगरी। का प्रधान या सरदार । + संज्ञा पुं० [हिं० मोगरा ] नमकीन बुंदिया। मीर मुंशी-संा पुं० [फा० मार-+90 मुंशी ] मुंशियों में प्रधान मंगा-संशा सी० [सं०] पुराणानुसार एक देवी का नाम । या सरदार । सब से बड़ा मुंशी । मुगिया-संगा पुं० [हिं० मूंग ] एक प्रकार का धारीदार या चार- मीर शिकार-संज्ञा पुं० [फा०] वह प्रधान कर्मचारी जो अमीरों खानेदार कपड़ा । वि० दे० "मुंगिया"। या पादशाहों के शिकार की व्यवस्था करता है। मुँगौरी-संशा स्त्री० [हिं० मूग+वरी ] मूंग की बनी हुई बरी । मीर सामान-संा पुं० ( फा• ] वह प्रधान कर्मचारी जो अमीरों मंज-संज्ञा पुं० [सं० मुंजातक ] पूँज ।। या बादशाहों की पाकशाला की व्यवस्था करता है। मंजक-संा पुं० [सं०] घोषों की आँख का एक रोग जो कीड़ों मीर हाज-संज्ञा पुं० [ फा . मीर अ०+हज ] हाजियों का सरदार। के कारण नेत्र-पटल पर होता है। जब यह बढ़ जाता है, हाजियों के समूह का प्रधान । तब मुंजजालक कहलाता है। भीगस-संशा स्त्री० [अ० ] वह धन-संपत्ति जो किसी के मरने । मंजकेतु-संशा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक राजा पर उसके उत्तराधिकारी को मिले । तरका । बपौती। का नाम । मीरासी-संज्ञा पुं० अ० मारास ] [ मी० मारासिन ] एक प्रकार मंजकेश-संज्ञा पुं० [सं०] (१) शिव ! (२) विष्णु । (३) के मुसलमान जो पश्चिम में पाए जाते हैं। ये प्रायः गाने महाभारत के अनुसार एक राजा का नाम । बनाने का काम करते हैं और भावों की तरह मसखरापन . मंजकेशी-संशा पुं० [सं० मुंजकोशन् ] विगु । करके लोगों को प्रसन्न करते हैं। मंजमाम-संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन मीरी-संशा स्त्री० [फा० मीर+ई (प्रत्य॰)] (1) मीर होने का नगर का नाम ।